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Stampede at Mahakumbh: प्रयागराज महाकुंभ में मंगलवार की रात मची भगदड़ में कई लोग घायल हो गए. कुंभ में भगदड़ के दौरान 1954 में 500 और 2013 में 35 लोगों की मौत हुई थी. धार्मिक आयोजनों में जब भगदड़ होती है तो ज्या…और पढ़ें

धार्मिक आयोजनों में ही अक्सर भगदड़ होती है और इसके चलते मौतें भी होती हैं.
हाइलाइट्स
- प्रयागराज महाकुंभ में भगदड़ से कई लोग घायल हुए
- 80 फीसदी भगदड़ की घटनाएं धार्मिक आयोजनों में होती हैं
- भगदड़ की घटनाओं में ज्यादातर महिलाएं शिकार बनती हैं
Stampede at Mahakumbh: प्रयागराज में चल रहे महाकुंभ में मंगलवार की रात को एक बड़ा हादसा टल गया. महाकुंभ में मौनी अमावस्या के अमृत स्नान से पहले आधी रात को भगदड़ मच गई, जिसमें काफी लोग घायल हो गए. उम्मीद जताई जा रही है कि बुधवार को करीब 10 करोड़ श्रद्धालु स्नान कर सकते हैं. ऐसे में सुरक्षा की कड़ी व्यवस्था की गई है ताकि रात जैसा कोई हादसा फिर न हो. मंगलवार यानी 28 फरवरी तक 16 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं ने संगम में डुबकी लगाई.
भारत में होने वाले धार्मिक आयोजनों में ही ज्यादातर भगदड़ मचती है. पिछले साल जुलाई में हाथरस के सिकंदराराऊ में बाबा नारायण साकार हरि भोला के एक सत्संग में मची भगदड़ में 100 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई थी. मरने वालों में ज्यादातर महिलाएं थीं. हमारे देश में अक्सर धार्मिक आयोजनों में भगदड़ के दौरान बड़े पैमाने पर मौतें होती रही हैं. आखिर क्या होती हैं इनकी वजहें और क्यों ज्यादातर महिलाएं या बच्चे ही इसका शिकार बनते हैं.
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1954 के कुंभ में मारे गए थे 500 लोग
अगर कुंभ की बात की जाए तो साल 1954 में प्रयागराज (उस समय के इलाहाबाद) में सबसे बड़ा हादसा हुआ था. 14 फरवरी 1954 को कुंभ के दौरान भगदड़ मचने से 500 लोगों की मौत हो गई थी. दूसरी बड़ी घटना भी इलाहाबाद कुंभ की है. साल 2013 में ट्रेन का इंतजार करते हुए श्रद्धालुओं की इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ में 35 लोगों की मौत हो गई थी. इस भगदड़ की वजह यह थी कि एक ट्रेन का प्लेटफार्म ऐन समय पर बदल दिया गया था. जिसकी वजह से यात्रियों में पैनिक हो गया और वे किसी भी हालत में ट्रेन पकड़ने के लिए भागमभाग करने लगे. जिसकी वजह से भगदड़ मच गई.
धार्मिक आयोजनों में ही अक्सर भगदड़ होती है और इसके चलते मौतें भी होती हैं. लेकिन ये घटनाएं सवाल खड़ा करती हैं कि आखिर भगदड़ क्यों होती है?
80 फीसदी भगदड़ के हादसे धार्मिक कार्यक्रमों में
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार, 2000 से 2013 तक, भगदड़ में लगभग 2,000 लोग मारे गए. इंटरनेशनल जर्नल ऑफ डिजास्टर रिस्क रिडक्शन (आईजेडीआरआर) द्वारा प्रकाशित 2013 के एक अध्ययन से पता चलता है कि भारत में 79 फीसदी भगदड़ धार्मिक सभाओं और तीर्थयात्राओं के कारण होती हैं. भारत और अन्य विकासशील देशों में भीड़-भाड़ से जुड़ी अधिकांश दुर्घटनाएं धार्मिक स्थलों पर होती हैं.
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ज्यादा मौतें क्यों होती हैं भगदड़ के दौरान
अक्सर ये धार्मिक आयोजन या कार्यक्रम ऐसी जगह पर होते हैं, जहां से निकलने का केवल एक रास्ता होता है और वो भी संकरा. अधिकांश धार्मिक उत्सव नदियों के किनारे, पहाड़ी इलाकों या पर्वत शिखरों जैसे क्षेत्रों में मनाए जाते हैं. इन क्षेत्रों में उचित रास्ते नहीं हैं, जिससे तीर्थयात्रियों के लिए जोखिम पैदा होता है.
भगदड़ कई कारणों से हो सकती है, इनमें से कुछ खतरे इस प्रकार हैं…
– क्षमता से अधिक भीड़ का एकत्र होना
– भीड़ को संभालने के लिए नियंत्रण की व्यवस्था नहीं
– कार्यक्रम स्थल का गलत चुनाव, जिनमें कोई स्पष्ट निकास मार्ग नहीं
– आयोजन स्थल का संकीर्ण होना
– आयोजन स्थल पर बुनियादी सुविधाओं का अभाव
इसके पीछे प्रबंधन की कमी जिम्मेदार
आमतौर पर धार्मिक सभाओं और आयोजनों को मंजूरी तभी मिलती है, जब आयोजन स्थल पर निकास की व्यवस्था समुचित हो. कई निकास द्वार हों और हर निकास द्वार बड़ा और चौड़ा हो. आमतौर धार्मिक आयोजनों के आयोजकों, आयोजन स्थल के मालिकों और राज्य प्रशासन को भीड़ की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार माना जाता है, विशेषज्ञों का कहना है कि उचित भीड़ प्रबंधन प्रणाली की कमी से ऐसी आपदाएं होती हैं.
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क्या भीड़ की भी सीमा तय होनी चाहिए
भारत में धार्मिक आयोजनों में आमतौर पर खासी भीड़ होती है. भगदड़ और भीड़ के घनत्व में एक अनुपात जरूर होता है. आमतौर पर प्रति वर्गमीटर में ज्यादा से ज्यादा पांच से ज्यादा लोग नहीं होने चाहिए. लेकिन हमारे यहां आयोजनों में प्रति वर्ग मीटर भीड़ की संख्या 10 तक पहुंच जाती है. जैसा कि हाथरस में भी हुआ. यहां भी निकास द्वार केवल एक ही था वो भी छोटा. अमेरिका में एक वर्ग मीटर में आप 5 से ज्यादा लोगों को समायोजित नहीं कर सकते, लेकिन भारत में ये आराम से होता है. जब भीड़ बढ़ती जाती है तो हालात बेकाबू हो जाते हैं.
कैसे होती है हादसे की शुरुआत
ऐसे मामलों में ज्यादातर ट्रिगर मनोवैज्ञानिक होता है – जैसे भीड़ में अफवाह फैलना, या तेज आवाज या किसी व्यक्ति का फिसल जाना. पहले से ही संकरी जगह में और घबराए हुए लोग एक-दूसरे को धक्का देना शुरू कर देते हैं. इंडियन सोसाइटी फॉर एप्लाइड बिहेवियरल साइंस के अध्यक्ष गणेश अनंतरामन कहते हैं, “भौतिक बुनियादी ढांचे की कमी से भीड़ का व्यवहार और भी खराब हो जाता है और खतरे की भावना बढ़ जाती है.”
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दिल्ली में विद्यासागर इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ, न्यूरो एंड एलाइड साइंसेज के पूर्व क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. पुलकित शर्मा कहते हैं, “घबराहट की ऐसी स्थितियों में हर किसी के दिमाग में यह अलार्म बजता है कि कोई खतरा है. ज्यादातर लोगों को यह भी नहीं पता होता कि खतरा वास्तविक है या नहीं और क्या यह उन्हें प्रभावित करेगा. हर कोई अपने और अपने परिवार के बारे में चिंतित है और इसलिए स्वार्थी हो जाता है. बाकी सभी को सिर्फ एक वस्तु और बाधा के रूप में देखता है.”
पुलिस का एक्शन भी करता है दिक्कत
अनियंत्रित लोगों के समूह पर पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई भी दिक्कत पैदा करती है. ऐसे समय में पुलिस अक्सर आने वाली भीड़ को विपरीत दिशा में खदेड़ती है, जिससे भगदड़ के हालात पैदा हो जाते हैं.
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महिलाएं क्यों बनती हैं ज्यादा शिकार
धार्मिक आयोजनों में हादसों में ज्यादातर मरने वाली महिलाएं होती हैं. पिछले साल जुलाई में हाथरस हादसे में ज्यादातर मरने वाली महिलाएं थीं. लेकिन ज्यादातर मामलों में ऐसा ही होता है. महिलाएं ज्यादा धार्मिक होती हैं तो वे ऐसे आयोजनों में ज्यादा संख्या में पहुंचती हैं. वे शारीरिक तौर उतनी मजबूत नहीं होतीं जिसकी वजह से भगदड़ के दौरान उनके शिकार बनने की आशंका ज्यादा होती है. भारतीय महिलाओं का पहनावा (साड़ियां) भी उनके भागने में रुकावट पैदा करता है. महिलाओं में घबराहट की मात्रा भी तुरंत बहुत बढ़ जाती है, जिससे उन्हें हार्ट अटैक हो सकता है या दम घुट सकता है. अक्सर महिलाएं भागते लोगों के पैरों के नीचे आकर कुचली जाती हैं. मौत का सबसे आम कारण कंप्रेसिव एस्फिक्सिया है, जो ऐसी स्थिति में महिलाओं के लिए खतरनाक तौर पर बढ़ जाती है. महिलाओं का शरीर आमतौर पर छोटा होता है और उनकी छाती के ऊपरी हिस्से में ज्यादा वजन होता है. अगर भगदड़ के दौरान वहां दबाव पड़ता है तो इसका असर उनके लिए खतरनाक होता है.
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भगदड़ के समय किस तरह प्रतिक्रिया करता है शरीर
भगदड़ के दौरान, भीड़ में फंसे लोग एक-दूसरे से टकराते हैं. इसका मतलब है कि हिलने-डुलने के लिए कोई जगह नहीं है. यह श्वसन के लिए जिम्मेदार एक प्रमुख मांसपेशी, डायाफ्राम को सिकुड़ने (कसने) और सपाट होने (ढील देने) से रोकता है, जिसका अर्थ है कि हवा फेफड़ों में प्रवेश नहीं कर सकती या बाहर नहीं निकल सकती. जब ऐसा होता है, तो यह जल्दी ही कार्बन डाइऑक्साइड के निर्माण और ऑक्सीजन की कमी के साथ कंप्रेसिव एस्फिक्सिया की ओर ले जा सकता है. मानव शरीर लंबे समय तक ऑक्सीजन के बिना काम नहीं कर सकता है क्योंकि इससे जल्दी ही अंग विफलता और मस्तिष्क की मृत्यु हो सकती है.
New Delhi,Delhi
January 29, 2025, 12:17 IST
धार्मिक आयोजनों में ही क्यों ज्यादातर मचती है भगदड़, कौन लोग होते हैं शिकार?