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Satyanarayan Temple in Deoria : झोपड़ी से खपरैल, फिर पक्के मकान और अब गुंबदनुमा भव्य मंदिर का स्वरूप ग्रहण करने तक इसकी धार्मिक गरिमा लगातार बढ़ती रही है. देवरिया का ये मंदिर लोगों को जोड़ता है.
तीन सौ वर्षों की तपस्या से गढ़ा गया अष्टकोणीय चमत्कार
हाइलाइट्स
- देवरिया का अष्टकोणीय मंदिर 300 वर्षों की विरासत का प्रतीक है.
- मंदिर की वास्तु योजना दलित शिल्पकार ने तैयार की थी.
- यहां हर साल ‘अन्नकूट महोत्सव’ का भव्य आयोजन होता है.
देवरिया. ये पूर्वांचल का इकलौता अष्टकोणीय मंदिर है जो 300 वर्षों की विरासत और सात पीढ़ियों की आस्था का प्रतीक है. ये ऐतिहासिक अष्टकोणीय मंदिर पूर्वांचल की धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना का अद्भुत उदाहरण है. ये अब न सिर्फ पूजास्थल है, बल्कि सामाजिक समरसता और पारंपरिक वास्तुकला की अनूठी मिसाल बन चुका है. करीब 300 साल पुराना इतिहास समेटे ये मंदिर दर्जनों गांवों की आस्था और एकता का प्रतीक है. मान्यताओं के अनुसार, करीब सात पीढ़ियों पहले एक भक्त ने श्री सत्यनारायण भगवान की प्रतिमा एक फूस की झोपड़ी में स्थापित की थी. कालांतर में ये स्थल गांवों के सामूहिक श्रद्धा का केंद्र बन गया. झोपड़ी से खपरैल, फिर पक्के मकान और अंततः गुंबदनुमा भव्य मंदिर का स्वरूप ग्रहण करने तक इस स्थल की धार्मिक गरिमा लगातार बढ़ती रही.
स्थापत्य में बेजोड़
इस मंदिर का निर्माण करीब 10 वर्षों में हुआ. इसकी वास्तु योजना दलित समुदाय से आने वाले एक पारंपरिक शिल्पकार ने तैयार की, जो उस समय के सामाजिक ढांचे में एक साहसिक और समतावादी कदम था. मंदिर सूर्खी और चूने से बनी विशेष प्रकार की पतली ईंटों से निर्मित है, जो इसे स्थापत्य दृष्टिकोण से विशिष्ट बनाता है. इस सिद्धार्थ मणि मंदिर समिति के अनुसार, ये केवल एक पूजा स्थल नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक जड़ों का प्रतीक है. इसकी वास्तुकला और निर्माण यात्रा ऐतिहासिक दस्तावेज है.
सांस्कृतिक चेतना का केंद्र
पूर्व प्रधान अनिल मणि के अनुसार, देवरिया का ये मंदिर लोगों को जोड़ता है. जाति-धर्म से ऊपर उठकर सभी इसमें सहभागी होते हैं, यही इसकी असली ताकत है. ग्रामीण दिनेश मणि ने कहा कि हमने अपने बुजुर्गों से सुना और खुद देखा है कि कैसे ईंट, चूना और श्रद्धा से ये मंदिर खड़ा हुआ. यहां अन्नकूट का दिन पूरे गांव को एक कर देता है. यहां हर साल ‘अन्नकूट महोत्सव’ का भव्य आयोजन होता है, जिसमें सैकड़ों व्यंजन बनाकर भगवान को अर्पित किए जाते हैं. बाद में इसे प्रसाद के रूप में श्रद्धालुओं में बांट दिया जाता है. ये आयोजन न केवल धार्मिक, बल्कि सामाजिक समरसता और सहयोग की भावना का उत्सव बन चुका है. 300 वर्षों की परंपरा, सामाजिक समरसता और अनोखी वास्तुकला को समेटे ये अष्टकोणीय मंदिर आज पूर्वांचल की सांस्कृतिक चेतना का केंद्र है.
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