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Sri Sri Ravi Shankar| The Art of Living | श्री श्री रविशंकर अमृत वाणी


Sri Sri Ravi Shankar : एक परमाणु की ऊर्जा को पूर्ण रूप से नाप पाना असंभव है. इसी प्रकार एक मनुष्य की सम्पूर्ण क्षमता का अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता. मनुष्य का स्वभाव परमाणु जैसा ही है. परमाणु का केन्द्रीय भाग पूर्णत: सकारात्मक होता है, जबकि नकारात्मक अंश बाहरी घेरे में स्थित रहता है. इसी प्रकार मनुष्य में पाई जाने वाली नकारात्मकता उसकी वास्तविक प्रकृति नहीं होती; वह केवल ऊपर की परत में जमी हुई धूल की तरह होती है. जब मनुष्य अपने भीतर के केन्द्र में स्थित होता है, तब वह शांत, स्थिर और सौम्य बन जाता है. हिंसा मनुष्य का स्वभाव नहीं है; वह केवल भीतर के किसी स्तर पर असंतुलन का संकेत है.

ज्ञान सही है या नहीं, यह कैसे जाना जाए? प्राचीन समय में, हजारों वर्ष पहले, लोग जानते थे कि बृहस्पति के चारों ओर अनेक उपग्रह हैं. उन्होंने यह सब बाहरी उपकरणों से नहीं, बल्कि मन को शांत करके जाना. जब मन जाग्रत रहते हुए भी अत्यंत शांत हो जाता है, तब संकल्प के साथ सहज बोध उत्पन्न होता है, और उसी से प्रेरणा, ज्ञान तथा अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है. इसी पद्धति से प्राचीन मानव ने ब्रह्माण्ड के विषय में अनेक सत्य जाने और गणितीय विधियाँ विकसित कीं, जो आज भी मान्य हैं. प्राचीन पंचांग आज भी ग्रहण का समय सही सही बता देते हैं. ज्योतिष और खगोल-विज्ञान का प्रारम्भ भी इसी सहज बोध से हुआ. प्राचीन मनुष्य जानता था कि सूर्य केन्द्र में है और ग्रह उसके चारों ओर घूमते हैं. उन्होंने उस स्थिति में रहकर जाना जिसमें प्रत्येक कोशिका जागृत और जीवंत लगती है, और मन पूर्ण शांत होता है. इसे ही समाधि कहा गया है.

दो-तीन दिनों का मौन भीतर की शांति

यदि हम वर्ष में दो अथवा तीन दिन भी मौन रखकर केवल अपने विचारों और भावनाओं को देखें, तो हमें भीतर की शांति का अनुभव हो सकता है. विचारों की हलचल से तनिक मुक्त होना ही अंतर्दृष्टि का आधार है. और अंतर्दृष्टि ही नई रचना की नीव है. आज हमारे सामान्य जीवन में विचारों, ध्वनियों, गतिविधियों और उद्दीपनों की इतनी भीड़ है कि मन में न ध्यान रह पाता है और न स्मरण. आज बच्चों में ध्यान-अभाव एक बड़ी समस्या बन गई है. उन्होंने वस्तुओं पर ठहरकर देखने की क्षमता खो दी है. जब मन शांत होता है, तब बुद्धि क्षीण नहीं होती; वह और प्रखर हो जाती है. ध्यान-काल बढ़ जाता है. किसी भी साधना का प्रथम उद्देश्य हमारी ग्रहण-क्षमता को बढ़ाना होना चाहिए, जिससे हम अपने भावों और विचारों को अधिक स्पष्टता से व्यक्त कर सकें.

एक पक्ष तनाव को हटाना है, पर दूसरा पक्ष तनाव को भीतर प्रवेश ही न करने देना है. इसके लिए हमें अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना होगा. तीखी धूप भी हंसी और सहजता से झेली जा सकती है. व्यक्ति को मन में ऐसे आन्तरिक अवरोध बनाने चाहिए जिनसे तनाव भीतर प्रवेश न कर सके. परंतु तनाव कभी न कभी किसी न किसी मार्ग से आ ही जाता है. इसलिए उसे हल्के में लेना सीखें. परिस्थितियों को जितनी सहजता, सरलता और प्रसन्नता से आप संभालते हैं, उतना ही आप अपनी पूरी क्षमता का उपयोग कर रहे होते हैं. अपनी क्षमता के प्रति व्यक्ति सहज रहता है, उसे कोई डिगा नहीं सकता. उसके भीतर आत्मविश्वास और स्वाभाविक मुस्कान विकसित होती है.

आध्यात्मिकता कोई अलग संसार नहीं

आध्यात्मिकता का अर्थ है, हर जगह जीवन को महसूस करना. मैं भौतिकता और आध्यात्मिक को अलग नहीं मानता. पदार्थ का सबसे सूक्ष्म रूप ही चेतना है और चेतना का स्थूल रूप पदार्थ है. जैसे शरीर और मन एक ही प्रक्रिया के दो पक्ष हैं. आप नेत्रों से देखते हैं, पर देखने वाला मन होता है. यह संसार चेतना और पदार्थ का संयुक्त रूप है.
आध्यात्मिक अभ्यास भी कोई अलग विधि नहीं, बल्कि जीवन का सहज हिस्सा हैं. प्रार्थना का भाव विस्मय का भाव है – आकाश को देखकर कहना कि, “वाह, कितने ग्रह, कितने तारे, कितना विस्तृत यह विश्व!” यही चेतना का विस्तार है और यही ध्यान है. सृष्टि और सृजनकर्ता अलग नहीं हैं, जैसे नर्तक और नृत्य अलग नहीं होते. सृष्टि की रचना हुए अरबों वर्ष हो चुके हैं. उसके सामने हमारा जीवन – चाहे अस्सी वर्ष हो या सौ – कुछ भी नहीं. इस व्यापकता के संदर्भ में स्वयं को देखना चेतना को ऊँचा उठाता है. प्राचीन भारत के ग्रंथों में चेतना को जानने के एक सौ बारह मार्ग बताए गए हैं. उनमें से एक है खुला नीला आकाश देखना, और मन को उस व्यापकता में विलीन होने देना. जहां भी मन जाता है, वह उसी विस्तार का अनुमान करके शांत होता जाता है.

भीतर के आकाश को शुद्ध करना जरूरी

ग्रंथों में तीन प्रकार के आकाश बताए गए हैं – भूताकाश, जो भौतिक जगत है. चित्ताकाश ,जहां विचार प्रवाहित होते हैं और चिदाकाश, जहां शुद्ध चेतना विद्यमान है. साधना की यात्रा इन तीनों से होकर भीतर उतरती है. मनुष्य कोई ठोस वस्तु नहीं, वह एक तरंग है. नेत्र बंद कर अपने आप से पूछिए, ‘‘मैं कौन हूँ?’’ तो कोई उत्तर नहीं मिलेगा. केवल एक व्यापक शून्यता का अनुभव होगा. वही आपका वास्तविक स्वरूप है. जब चेतना शरीर का त्याग करती है, तब मन को शुद्ध नहीं किया जा सकता. शरीर ही वह साधन है जिसमें बीते हुए संस्कार धुल सकते हैं. बुद्ध ने जिसे निर्वाण कहा, वह इसी अवस्था में बैठना और स्वयं को ‘कुछ नहीं’’ मानना है. जब यह स्पष्टता आती है, तब मन किरण की तरह तीव्र हो जाता है. ऐसे मन में संकल्प शीघ्र फल देता है. वह मन स्वयं को और दूसरों को ऊँचा उठा सकता है. उसमें सहज आनंद, सरलता और प्रेम रहता है.

आपका सम्पूर्ण अतीत एक स्वप्न है. प्रात: जागने के बाद किये गए कार्यों को स्मरण कीजिए -क्या वे स्वप्न जैसे नहीं लगते? भविष्य भी ऐसा ही है. दस अथवा बीस वर्ष बाद, जो कुछ आप करेंगे,वह भी स्मृति बनकर ही रह जाएगा. यह समझते ही भीतर का आकाश खुलता है और जागरूकता बढ़ती है. जीवन का एक नया आयाम प्रकट होता है.  बस जागने की आवश्यकता है.

21 दिसंबर, विश्व ‘ध्यान दिवस’ के शुभ अवसर पर विश्व परिवार के संग ‘ध्यान समारोह’ में विश्व विख्यात मानवतावादी और आध्यात्मिक गुरु गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी के सान्निध्य में ध्यान मग्न हों, केवल गुरुदेव के यूट्यूब चैनल पर जुड़ें.

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