एक लहर समुद्र की गहराई नहीं छू सकती. गहराई छूते ही लहर का अस्तित्व समाप्त हो जाता है, वह सागर का हिस्सा बन जाती है. उसी प्रकार मन कभी तुम तक नहीं पहुँच सकता जिस क्षण वह तुम्हारे निकट आता है, उसी क्षण वह मन नहीं रह जाता, “न मन” हो जाता है. मन की प्रकृति अस्थिर है. वह कभी भूत में उलझता है, कभी भविष्य की कल्पनाओं में. तुम जहाँ हो, मन वहाँ नहीं है; और जहाँ मन है, तुम वहाँ नहीं हो. इसलिए ध्यान करने का अर्थ मन को साधना नहीं, बल्कि स्वयं को स्वीकार करना है, जैसे हो, जहाँ हो.
मन बार-बार पूछता है— क्यों? लेकिन इस ‘क्यों’ का कोई तार्किक उत्तर नहीं होता. इसका उत्तर अनुभव है. जब यह बोध होता है कि यह सब तो केवल मानसिक गतिविधि है, उसी क्षण एक सहज शांति उतर आती है. जब मन बेतहाशा दौड़ रहा हो और अचानक यह स्पष्ट हो जाए कि यह दौड़ ही मन का स्वभाव है, तब एक गहरी राहत मिलती है. आप और सजग होते जाते हैं और फिर सारे प्रश्न लुप्त हो जाते हैं. यही अभ्यास है.
अभ्यास का वास्तविक अर्थ
महर्षि पतंजलि कहते हैं – अभ्यास दीर्घकाल तक और निरंतर होना चाहिए. वर्तमान क्षण को पकड़ने की कोशिश मत करो. जैसे ही तुम कहते हो “यह वर्तमान क्षण है”, वह क्षण बीत चुका होता है. वर्तमान क्षण कोई बिंदु नहीं, बल्कि एक विराट, गहन अवस्था है, उसमें स्थापित होने का प्रयत्न ही अभ्यास है. किसी भी मूल्यवान वस्तु को पाने में समय लगता है. शरीर को सशक्त बनाने में समय लगता है, मन को स्थिर करने में उससे भी अधिक. योग, संगीत, खेल किसी भी कला में दक्षता निरंतर अभ्यास से ही आती है. बीच-बीच में अभ्यास छोड़ देना लाभ नहीं देता. जैसे कोई व्यक्ति कुछ दिन व्यायाम करे, फिर छोड़ दे, तो शरीर में कोई परिवर्तन नहीं आता. ध्यान के साथ भी यही होता है.
अभ्यास में ‘आदर’ क्यों आवश्यक है?
अभ्यास केवल समय देने से नहीं होता, आदर और सम्मान से होता है. उदास मन से, बोझ की तरह किया गया अभ्यास वास्तव में अभ्यास नहीं है. पहले दिन जब कोई साधना शुरू करता है, तो उसमें उत्साह होता है. समय के साथ वही साधना यांत्रिक हो जाती है. सजगता घटती है, सम्मान कम हो जाता है. यही कारण है कि ध्यान में गहराई नहीं आती. यदि किसी दिन ध्यान में रस न आए, तो विधि को दोष मत दो, अपितु स्वयं से पूछो, क्या मैंने इसे आदर के साथ किया? इसीलिए समूह में बैठकर ध्यान करना सहायक होता है. समूह की ऊर्जा हमें फिर से सजग बनाती है, अभ्यास में सम्मान लौटाती है.
सत्कार का अर्थ
सत्कार का अर्थ है – वर्तमान क्षण में पूर्ण सजगता और कृतज्ञता के साथ उपस्थित होना. जब तुम किसी पर्वत को निहारते हो और बिना किसी तर्क, बिना किसी प्रश्न किये पूरे हृदय से देखते हो, वही उसका सम्मान है. गुरु के प्रति आदर का अर्थ केवल व्यक्ति का सम्मान नहीं, बल्कि गुरु द्वारा दिए गए ज्ञान और मंत्र का सम्मान है. पतंजलि कहते हैं -यदि हृदय में सत्कार नहीं है, तो ध्यान में गहराई नहीं आ सकती. गुरु को अनादर से कोई हानि नहीं होती; साधक स्वयं बहुत कुछ खो देता है, क्योंकि उसका मन वर्तमान में टिक नहीं पाता.
अभ्यास के साथ वैराग्य
क्या केवल अभ्यास पर्याप्त है? नहीं. पतंजलि कहते हैं – अभ्यास के साथ वैराग्य भी आवश्यक है. ये दोनों योग के दो पहिए हैं.वैराग्य का अर्थ संसार से भागना नहीं है. इसका अर्थ है – आकर्षणों के बीच भी स्थिर रहना. दृश्य, ध्वनि, स्वाद, स्पर्श इंद्रियाँ मन को लगातार खींचती हैं. इन सबमें उलझा मन वर्तमान क्षण में नहीं टिक पाता. वैराग्य यह है कि सुंदर दृश्य हो, मधुर संगीत हो, स्वादिष्ट भोजन हो— फिर भी मन उस क्षण उनसे बँधा न हो. कुछ समय के लिए इंद्रिय-आकर्षणों से मन को हटाना ही वैराग्य है. बिना वैराग्य के ध्यान थकान देता है, विश्राम नहीं. इच्छाओं के पीछे दौड़ता मन अंततः जल जाता है, पर तृप्त नहीं होता.
योग का सरल अर्थ
योग का शाब्दिक अर्थ ‘जुड़ना’ होता है. मन का कुशल प्रबंधन, भावनाओं की समझ, प्रेम में स्थिरता योग है. प्रेम सर्वव्यापी है, पर बिना योग के वह शीघ्र घृणा में बदल जाता है. योग प्रेम को स्थायित्व देता है. श्रीमद्भगवद् गीता में भगवान श्री कृष्ण जी कहते हैं – योगः कर्मसु कौशलम् कर्म में कुशलता, जीवन में संतुलन और चित्त की सजगता योग है. ध्यान कोई प्रयास नहीं, बल्कि विश्राम है. जब मन न रहे, तब जो शेष बचता है, वही तुम हो.
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