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अजमेर शरीफ को क्यों हर साल चादर भेंट करता है प्रधानमंत्री कार्यालय, नेहरू के जमाने से परंपरा


अजमेर में सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह के सालाना उर्स पर पीएमओ लगातार चादर चढाने के लिए भेजता है. ये चादर खासतौर पर वहां से आती है और दरगाह पर चढ़ाई जाती है. कई दशकों से अगाध ऐसा हो रहा है. नेहरू से लेकर मोदी तक सभी प्रधानमंत्री ऐसा करते रहे हैं. राजस्थान के राज्यपाल और मुख्यमंत्री की ओर से ये होता है. यही नहीं हर यहां पाकिस्तान और बांग्लादेश सरकार भी उर्स के दौरान चादर चढ़ाती हैं. इस बार हिंदू सेना इसका विरोध कर रही है. इसे रोकने के लिए उसने सुप्रीम कोर्ट में अपील की है. जानते हैं पीएमओ ने कब और कैसे ये परंपरा शुरू की. और इस दरगाह की इतनी मान्यता क्यों है.

हिंदू सेना के अध्यक्ष विष्णु गुप्ता ने सुप्रीम कोर्ट से पीएमओ द्वारा सालाना उर्स के मौके द्वारा चादर चढ़ाने से रोकने के लिए अपील की है. हिंदू सेना ने अपनी इस तत्काल याचिका पर मौखिक सुनवाई करने की मांग की थी, जिसको सुप्रीम कोर्ट ने इनकार कर दिया. ये मुकदमा हिंदू सेना के अध्यक्ष विष्णु गुप्ता द्वारा दायर किया गया है, जिसमें कहा गया है कि प्रधानमंत्री की ओर से औपचारिक वस्त्र भेंट करने से गलत संदेश जाएगा. उसका कहना है कि अजमेर दरगाह का निर्माण एक प्राचीन और पूर्व-मौजूद शिव मंदिर के ऊपर किया गया है, ये मामला राजस्थान की एक अदालत में लंबित है.

हालिया विवाद क्या है

हाल ही में इस परंपरा पर विवाद हुआ है, क्योंकि हिंदू सेना जैसे संगठनों ने दावा किया है कि दरगाह की जगह मूल रूप से शिव मंदिर (संकट मोचन महादेव मंदिर) थी. इस दावे पर अजमेर की एक अदालत में मुकदमा चल रहा है. याचिकाकर्ताओं ने मांग की है कि मुकदमा लंबित रहते चादर चढ़ाना बंद किया जाए, क्योंकि यह केस को प्रभावित कर सकता है. ये संविधान की धर्मनिरपेक्षता के भी खिलाफ है.

पीएमओ कब से चादर चढ़ा रहा है

प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से अजमेर शरीफ दरगाह में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के सालाना उर्स के मौके पर चादर चढ़ाने की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है. ये परंपरा स्वतंत्रता के बाद शुरू हुई थी. पहली बार तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इसे भेजा था. नेहरू के बाद इंदिरा गांधी, राजीव गांधी सहित सभी प्रधानमंत्रियों ने इसे जारी रखा. भारत की धर्मनिरपेक्षता के तहत सभी सरकारें सभी धर्मों के त्योहारों को मान्यता देती रही हैं.

मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी 2014 से लगातार हर वर्ष चादर भेजते रहे हैं. चादर आमतौर पर अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री या प्रतिनिधि के माध्यम से पेश की जाती है. 2025 के उर्स (814वां) में प्रधानमंत्री की ओर से चादर भेजी गई. केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने इसे पेश किया.

क्या इसे कभी रोकने की कोशिश हुई?

नहीं, उपलब्ध जानकारी और ऐतिहासिक रिकॉर्ड्स के अनुसार, किसी भी प्रधानमंत्री ने इस परंपरा को रोकने की कोशिश नहीं की. ये सभी सरकारों में जारी रही. यह परंपरा सद्भाव और एकता का प्रतीक बनी हुई है. कुल मिलाकर अजमेर की चादर परंपरा अनोखी है और मुख्य रूप से मुस्लिम सूफी स्थल से जुड़ी है

क्या देश में राज्य सरकारें भी ऐसा करती हैं

प्रधानमंत्री कार्यालय की तरह अजमेर शरीफ दरगाह में उर्स के मौके पर चादर चढ़ाने की परंपरा कुछ राज्य सरकारों, राज्यपालों, केंद्रीय मंत्रियों और राजनेताओं की ओर से भी होती है, लेकिन ये PMO जितनी संस्थागत और नियमित नहीं है.

दरगाह राजस्थान में होने के कारण वहां के मुख्यमंत्री और राज्यपाल की ओर से चादर पेश की जाती है. इस बार तेलंगाना सरकार के मुख्यमंत्री रेवंथ रेड्डी की ओर से भी चादर भेजी गई. जब अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने कई बार दिल्ली सरकार की ओर से चादर भेजी.

केंद्रीय मंत्रियों में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और अन्य मंत्री भी अपनी ओर से चादर भेजते हैं. कई पूर्व राष्ट्रपतियों जैसे सर्वपल्ली राधाकृष्णन, ज्ञानी जैल सिंह, प्रतिभा पाटिल ने जियारत की या चादर भेजी. उर्स में राजनीतिक नेता, विदेशी नेता भी चादर भेजते हैं.

कितनी पुरानी अजमेर शरीफ दरगाह

अजमेर शरीफ दरगाह करीब 800 साल पुरानी है. यह सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती (जन्म 1141-1143 ई., मृत्यु 15 मार्च 1236 ई.) की मजार है. ख्वाजा साहब 1192 में अजमेर आए और यहीं के हो गए. उनकी मृत्यु के बाद उनकी कब्र पर साधारण मकबरा बना. जिसे बाद में दिल्ली सल्तनत के सुल्तान इल्तुतमिश ने खास तरीके से बनवाया. मुगल काल में इसका और विस्तार हुआ. ये भारत की सबसे प्रमुख सूफी दरगाहों में से एक है. इसको गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक माना जाता है.

चादर क्यों चढ़ाई जाती है?

चादर चढ़ाना श्रद्धा, सम्मान और भक्ति का प्रतीक है. यह परंपरा 800 साल से ज्यादा पुरानी है. सूफी परंपराओं से जुड़ी है. शुरुआत में मजार को ढकने और सम्मान देने के लिए चादर चढ़ाई जाती थी. अब यह अकीदत का नजारा बन गई है. श्रद्धालु चादर चढ़ाकर दुआ मांगते हैं, मन्नतें पूरी होने पर नजराना पेश करते हैं.

सालाना उर्स यानि ख्वाजा साहब की पुण्यतिथि पर हजारों चादरें चढ़ती हैं. बड़ी चादरें 42 गज की होती हैं और मजार को पूरी तरह ढकती हैं, जबकि छोटी चादरें अन्य मजारों पर भेजी जाती हैं.

पाकिस्तान और बांग्लादेश की ओर से भी

पाकिस्तान सरकार और वहां के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के अनुयायी नियमित रूप से चादर भेजते हैं. अक्सर पाकिस्तान उच्चायोग या पाकिस्तानी राजनयिक दिल्ली में चादर पेश करते हैं. कई बार पाकिस्तानी श्रद्धालु व्यक्तिगत रूप से भी चादर चढ़ाने आते हैं.

बांग्लादेश सरकार भी चादर भेजती है या अपने प्रतिनिधि के माध्यम से पेश कराती है. दिल्ली स्थित बांग्लादेश उच्चायोग के माध्यम से यह प्रक्रिया होती है. बांग्लादेश में भी सूफी परंपराएं बहुत मजबूत हैं, और ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को वहां भी बहुत सम्मान दिया जाता है. इस तरह अजमेर शरीफ न केवल भारत बल्कि पूरे दक्षिण एशिया के लिए एक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक केंद्र है.

किस तरह मनाया जाता है अजमेर शरीफ का सालाना उर्स

अजमेर शरीफ दरगाह में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का उर्स उनकी पुण्यतिथि का उत्सव है, जो सूफी परंपरा में “उर्स” (शादी) कहलाता है. यह उत्सव रूहानियत, इबादत और सद्भाव से भरा होता है
– उर्स की शुरुआत बुलंद दरवाजे पर ध्वज फहराकर होती है।
– उर्स के दौरान यह विशेष दरवाजा श्रद्धालुओं के लिए खोला जाता है, जिससे गुजरना पुण्य माना जाता है.
– लाखों श्रद्धालु चादर, फूल, इत्र चढ़ाते हैं. सरकारी और विदेशी चादरें भी पेश की जाती हैं.
– रात भर मशहूर कव्वालों की सूफियाना कव्वालियां होती हैं, जो रूहानी माहौल बनाती हैं.
– विशाल देगों में खाना पकाया जाता है और सभी को मुफ्त बांटा जाता है
– विशेष प्रार्थनाएं, जिक्र और छठे दिन “छठी शरीफ” पर मुख्य रस्में होती हैं.
यह उत्सव अमन, मोहब्बत और गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक है. ये मुख्य रूप से 6 दिनों का होता है. इस्लामिक कैलेंडर के रजब महीने के पहले 6 दिनों में.
उर्स में लाखों श्रद्धालु आते हैं. हर साल तकरीबन 20-50 लाख से ज्यादा लोग. ये भारत के हर कोने से आते हैं. विदेशों से भी लोग यहां आते हैं, खासकर पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, मध्य एशिया, मलेशिया, इंडोनेशिया, ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा आदि. ये विश्व के सबसे बड़े सूफी जमावड़ों में एक है, जो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक एकता का अनोखा उदाहरण पेश करता है.

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