मृत्यु भोज में केवल ये लोग आमंत्रित
दाह संस्कार के तेरहवें दिन पर घर पर 13 या 16 पंडितों को घर पर बुलाकर भोज करवाया जाता है और इसमें रिश्तेदार व परिवार के लोग भी शामिल होते हैं. तेरहरवीं पर केवल गायत्री मंत्र का जप करने वाले विद्वान ब्राम्हणों को ही खाने का विधान है. मृत्युभोज केवल ब्राम्हण, करीबियों और जरूरतमंदों के लिए तैयार किया जाता है. लेकिन अब मृत्युभोज में लाखों खर्च करना और हजारों लोगों को खिलाना शास्त्र सम्मत नहीं है. अगर कोइ संपन्न परिवार का इस भोज का हिस्सा बनाता है, तो उसके कर्मों का क्षय होता है.

गरुड़ पुराण में कर्मों का उल्लेख
हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथों में से एक, गरुड़ पुराण में सीधे तौर पर पिंडदान भोजन का उल्लेख नहीं है. लेकिन यह बताता है कि मृत्यु के बाद आत्मा 13 दिनों तक अपने घर के आसपास रहती है. इस समय ब्राह्मणों को भोजन कराना और गरीबों की मदद करना मृतक की आत्मा के लिए लाभकारी होता है. गरुड़ पुराण में यह भी कहा गया है कि यह भोजन बहुत साधारण होना चाहिए. अगर अमीर लोग गरीबों के लिए बनाए गए भोजन को खाते हैं, तो यह पाप माना जाता है. इसे गरीबों के भोजन को चुराने के समान बताया गया है. इसलिए, पिंडदान के समय भोजन को जरूरतमंदों में बांटना चाहिए, न कि दिखावे या अनावश्यक तामझाम के लिए.
महाभारत के अनुशासन पर्व में श्रीकृष्ण ने कहा है कि भोजन देने वाले और खाने वाले दोनों को मन की शांति के साथ भोजन करना चाहिए. दुख के समय, विशेषकर शोक में, घर में भोजन करना आध्यात्मिक रूप से सही नहीं है. कुरुक्षेत्र युद्ध से पहले, श्रीकृष्ण ने दुर्योधन के घर भोजन करने से इनकार कर दिया था क्योंकि उनका मन शांत नहीं था. इससे यह समझा जा सकता है कि गहरे दुख के समय भोजन करना या बांटना आध्यात्मिक रूप से हानिकारक हो सकता है.
मनुस्मृति के नियम
पितृदेवताओं की पूजा के लिए किए जाने वाले श्राद्ध कर्मों के लिए मनुस्मृति में कुछ सख्त नियम हैं. इसमें कहा गया है कि केवल कुछ गिने-चुने विद्वान ब्राह्मणों को ही पूरी श्रद्धा के साथ भोजन कराना चाहिए. इस दौरान घर के लोग रोना-धोना नहीं करना चाहिए क्योंकि यह मृतक की आत्मा की शांति में बाधा डालता है. दिखावे के लिए बड़े पैमाने पर भोजन कराना और इसके लिए कर्ज लेना शास्त्रों के खिलाफ है. ऐसे कार्यों से पुण्य नहीं मिलता, बल्कि पाप होता है.
पुराने समय में, पिंडदान भोजन के पीछे एक अच्छा उद्देश्य था. आस-पड़ोस के लोग दुखी परिवार को अनाज आदि लाकर देते थे और उनके साथ भोजन करके उन्हें सांत्वना देते थे. यह भोजन दिखावे के लिए नहीं, बल्कि सांत्वना और आत्मा की शांति के लिए होता था. गंगाजल छिड़कना भी शरीर और घर के लिए अच्छा माना जाता था, जिससे बीमारियां दूर रहती थीं. यह परंपरा मानसिक रूप से संभलने और एकजुट रहने के लिए शुरू हुई थी.

अब यह परंपरा कैसे बदल गई?
समय के साथ, पिंडदान भोजन के पीछे का असली उद्देश्य बदल गया है. आजकल कई जगहों पर सैकड़ों लोगों को बुलाकर महंगे भोजन कराना पड़ता है, जिससे परिवारों पर दबाव बढ़ता है. कुछ लोग समाज में अपनी छवि बनाए रखने के लिए कर्ज भी लेते हैं. यह पूरी तरह से हमारे शास्त्रों के खिलाफ है. कई आध्यात्मिक गुरु भी ऐसे अनावश्यक खर्चों का विरोध करते हैं. वे इसे अनावश्यक बोझ और हमारे धर्म के खिलाफ बताते हैं.
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https://hindi.news18.com/news/dharm/is-it-right-or-wrong-to-eat-terahvi-bhoj-or-mrityu-bhoj-know-kya-terahvi-bhoj-khana-chahiye-ya-nahi-ws-kl-9613684.html