Monday, October 7, 2024
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इस दुर्लभ पेड़ के नीचे आराम करते थे श्रीकृष्ण, लोग आज भी बांधते हैं डोर, सारी मुरादें हो जाती हैं पूरी!


निर्मल कुमार राजपूत/मथुरा: भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं के कई किस्से आपने सुने होंगे. मथुरा से गोकुल पहुंचने के बाद जब श्री कृष्ण ने यहां पर चलना सीखा. चलने के साथ-साथ यहां पर अपनी लीलाओं को भी किया. गोकुल में एक वृक्ष ऐसा है, जिसके नीचे भगवान कृष्ण विश्राम करते थे.

नंद भवन के प्रांगण में खड़ा हुआ है पारस वृक्ष
सप्तमी की वह काली रात और कड़कड़ाती बिजली, घनघोर बारिश के बीच श्री कृष्ण को मथुरा की जेल से गोकुल ले जाया गया. यहां से वासुदेव श्री कृष्ण को गोकुल के लिए ले गए. यहां से चलने के साथ-साथ यमुना जी भी श्री कृष्ण के चरणों को स्पर्श करना चाहती थीं. जैसे ही वासुदेव ने यमुना में कदम रखा तो एक बार तो यमुना जी उनके चरणों को स्पर्श करने के लिए धीरे-धीरे अपना रूप बदलने लगीं. जब तक कृष्ण के चरणों का स्पर्श नहीं किया, तब तक वह उफान लेती रहीं.

श्री कृष्ण के चरणों का स्पर्श होने के बाद वह स्वत ही अपनी अवस्था में पहुंच गईं. वासुदेव ने बाबा नंद के यहां कृष्ण को छोड़ दिया और वहां से योग माया लेकर उन्हें मथुरा कारागार में आ गए. नंद भवन में आज भी एक पेड़ द्वापर कालीन समय से खड़ा हुआ है.

इस पेड़ की मान्यता क्या है? 
मंदिर के सेवायत पुजारी मोर मुकुट पाराशर ने बताया कि इस पेड़ को पारस नाम से जाना जाता है. यहां पर यह द्वापर कालीन समय से लगा हुआ है.

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डोर बांधने से मन्नत होती है पूरी
मोर मुकुट पाराशर ने यह भी बताया कि इस पेड़ को भगवान श्री कृष्ण के जमाने से देखा चला आ रहा है. यह पेड़ देखने में पीपल से अलग-अलग लगता है. इसलिए इसे पारस नाम दिया गया है. क्योंकि यह पेड़ अद्भुत है. नंद भवन के अलावा आपको कहीं भी देखने को नहीं मिलेगा. उन्होंने बताया कि इस पेड़ पर जो भी अपनी मनौती की डोर बांधता है. उसकी सारी मनोकामना पूर्ण हो जाती है और यहां आने के बाद जो व्यक्ति मनौती पूर्ण हो जाती है. वह अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान को भोग अर्पित करते हैं.

Disclaimer: इस खबर में दी गई जानकारी, राशि-धर्म और शास्त्रों के आधार पर ज्योतिषाचार्य और आचार्यों से बात करके लिखी गई है. किसी भी घटना-दुर्घटना या लाभ-हानि महज संयोग है. ज्योतिषाचार्यों की जानकारी सर्वहित में है. बताई गई किसी भी बात का Bharat.one व्यक्तिगत समर्थन नहीं करता है.

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