सृष्टि शर्मा/कुल्लू: कुल्लू में दशहरे का उत्सव एक अनोखा अनुभव है, जो देश के अन्य हिस्सों से पूरी तरह से अलग होता है. यहां विजय दशमी पर रावण दहन नहीं किया जाता, बल्कि भगवान रघुनाथ की भव्य रथ यात्रा निकलती है. ये पर्व एक महत्वपूर्ण देव मिलन का प्रतीक है, जहां घाटी के विभिन्न देवी-देवता एकत्रित होते हैं. कुल्लू का दशहरा, जिसे देवी-देवताओं का महाकुंभ भी कहा जाता है, 7 दिनों तक मनाया जाता है और इसकी मान्यताएं देश भर में अद्वितीय हैं.
कुल्लू का दशहरा: एक विशेष परंपरा
कुल्लू में दशहरे की परंपरा भगवान रघुनाथ के आगमन से जुड़ी है. राजा जगत सिंह द्वारा स्थापित इस उत्सव का उद्देश्य रघुनाथ महाराज के सम्मान में देवी-देवताओं का मिलन कराना है. इस दौरान ढालपुर मैदान में श्रद्धालु देवी-देवताओं के दर्शन करते हैं, जो उन्हें आशीर्वाद प्रदान करते हैं. इस दौरान न सिर्फ घाटी से सब देवी देवता ढालपुर मैदान में एकत्रित हुआ करते है, बल्कि पुराने समय से ही ये व्यापारियों के लिए भी व्यापार का एक बड़ा मेला रहा है. साथ ही यहां आने वाले सभी व्यक्तियों के मनोरंजन के लिए सांस्कृतिक संध्याओं का भी आयोजन किया जाता रहा है.
उत्सव के 7 दिन
दशहरे के पहले दिन, भगवान रघुनाथ अपने मंदिर से ढालपुर के अस्थाई शिविर की ओर प्रस्थान करते हैं. यहां उनकी रथ यात्रा में हजारों श्रद्धालु शामिल होते हैं. 7 दिनों तक भगवान रघुनाथ भक्तों को आशीर्वाद देते हैं और हर दिन देवता नरसिंह की जलेब निकाली जाती है. राजपरिवार के मुखिया द्वारा सुरक्षा सूत्र बांधे जाते हैं और रात में लालहड़ी नृत्य का आयोजन होता है, जहां लोग आग के चारों ओर नाचते हैं.
छठे दिन, सभी देवी-देवता रघुनाथ से विदाई लेते हैं और सातवें दिन लंका दहन के साथ उत्सव समाप्त होता है, जब भगवान रघुनाथ रथ यात्रा कर अपने निवास रघुनाथपुर लौटते हैं. इस प्रकार, कुल्लू का दशहरा न केवल धार्मिकता का प्रतीक है, बल्कि एक सांस्कृतिक उत्सव भी है, जो व्यापारियों और पर्यटकों के लिए एक बड़ा मेला बन जाता है.
FIRST PUBLISHED : September 23, 2024, 14:47 IST
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