Moun Charana Tradition: भारत के विभिन्न हिस्सों में अनेक प्राचीन परंपराएं आज भी जीवित हैं, और बुंदेलखंड की “मौन चराने” की परंपरा इनमें से एक महत्वपूर्ण कड़ी है. खासतौर पर मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में दीवाली के बाद मौन चराने की अनोखी परंपरा देखने को मिलती है. इस अनूठी परंपरा का इतिहास भगवान श्रीकृष्ण से जुड़ा है, जिन्हें ‘मौनिया’ भी कहा जाता है. मान्यता है कि श्रीकृष्ण भी गौधारण करते समय मौन रहते थे, और तभी से यह परंपरा प्रचलित हुई.
क्या है मौन चराना?
मौन चराना एक विशेष प्रकार का धार्मिक और सांस्कृतिक व्रत है, जिसमें व्यक्ति एक दिन के लिए मौन व्रत धारण करता है. इस दिन वे भोजन का सेवन नहीं करते, न ही जूते पहनते हैं. सुबह की शुरुआत में मौन चराने वाले व्यक्ति बछिया (बछड़ा) का पूजन करते हैं और श्रीकृष्ण के जयकारे के साथ अपनी यात्रा आरंभ करते हैं. गोधूलि बेला में वे गायों को चराते हुए अपने गांव वापस लौटते हैं.
पीडी पाल की कहानी: पढ़ाई के साथ निभा रहे परंपरा
छतरपुर के पीडी पाल एक युवा छात्र हैं, जो बी.फार्मेसी की पढ़ाई सागर से कर रहे हैं. लोकल18 से बातचीत में वे बताते हैं कि पिछले 10 वर्षों से वे इस परंपरा का पालन कर रहे हैं. यह परंपरा उन्होंने बचपन में ही अपने परिवार से सीखी थी. पीडी पाल बताते हैं कि अपने गांव के प्रति उनका प्रेम इतना गहरा है कि वे पढ़ाई के साथ इस परंपरा को निभाने हर साल वापस लौटते हैं. मौन चराना उनके लिए सिर्फ एक धार्मिक क्रिया नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक अनुभव है जो उन्हें भगवान कृष्ण के करीब महसूस कराता है.
कैसे चराते हैं मौन?
मौन चराने की प्रक्रिया भी काफी रोचक होती है. पहले वर्ष में पांच मोर पंख आवश्यक होते हैं, और हर अगले साल पांच-पांच पंख बढ़ाए जाते हैं. इस प्रकार 12 सालों में कुल 60 पंखों का संग्रह हो जाता है. मान्यता के अनुसार, मौन चराने वाले व्यक्ति इन पंखों को बछिया की पूंछ से बांधते हैं, और इस दौरान किसी धागे या सुतली का उपयोग नहीं किया जाता. ऐसा कहा जाता है कि यह परंपरा भगवान श्रीकृष्ण के युग से चली आ रही है.
मौन चराने की परंपरा के दौरान प्रसाद वितरण
मौन चराने के दौरान दूसरे गांवों और नगरों से भी मौनियों के समूह आते हैं. इन समूहों का आपस में मिलन होता है और उसके बाद लाई-दाना, गरी, बताशा और गट्टा जैसे प्रसाद का वितरण किया जाता है. प्रसाद ग्रहण करने के बाद यह व्रत पूरे 12 वर्षों तक निभाया जाता है. इसके अलावा, 13वें वर्ष में एक अतिरिक्त वर्ष के ब्याज के रूप में भी व्रत रखा जाता है, जिसे धार्मिक रूप से अत्यधिक महत्वपूर्ण माना जाता है.
इस परंपरा का आध्यात्मिक महत्व
मौन चराना व्रत भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों को प्रतिबिंबित करता है. मान्यता है कि 13 वर्षों तक इस व्रत को मन, वाणी और कर्म के साथ करने वाला व्यक्ति सांसारिक मोह-माया से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है. यह व्रत जीवन की तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य, संयम और साधना का प्रतीक माना जाता है.
बुंदेलखंड की दिवारी और मौन चराना का विशेष स्थान
बुंदेलखंड की दिवारी पर्व और मौन चराना की परंपरा को देशभर में विशिष्ट स्थान प्राप्त है. यह पर्व न केवल क्षेत्रीय सांस्कृतिक विरासत को प्रकट करता है बल्कि युवाओं और बुजुर्गों के बीच एक आध्यात्मिक और भावनात्मक संबंध भी बनाता है. इस अनूठी परंपरा को निभाने वाले लोग इसे केवल धार्मिक क्रिया मानकर नहीं बल्कि इसे आध्यात्मिक साधना के रूप में भी अपनाते हैं.
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FIRST PUBLISHED : November 5, 2024, 19:48 IST
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