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रावण की एक गलती से स्थापित हुआ था ये शिवलिंग, जानें सच है या छलावा


कच्छ: जिले के लखपत तालुका में कोटेश्वर का ज्योतिर्लिंग बहुत प्रसिद्ध है. समुद्र तट पर स्थित यह स्थान यहां के प्रसिद्ध कोटि शिवलिंग के कारण प्रसिद्ध हो गया है. यह हिंदू धर्म का तीर्थ स्थान है. यह कच्छ को जोड़ने वाली भारतीय सीमा पर आखिरी गांव है. वहां से अंतरराष्ट्रीय सीमा समुद्र में लगती है.

कोटेश्वर ज्योतिर्लिंग
कोटेश्वर लखपत तालुका कच्छ जिले के कई तीर्थस्थलों में से एक है. यहां से दो किलोमीटर की दूरी पर नारायण सरोवर स्थित है. समुद्र तट पर स्थित प्रसिद्ध कोटेश्वर महादेव मंदिर बहुत प्रसिद्ध है. नारायण सरोवर की यात्रा के साथ-साथ तीर्थयात्री यहां से कोटेश्वर महादेव के दर्शन भी कर सकते हैं. क्योंकि, इसका इतिहास पौराणिक कथाओं से जुड़ा हुआ है. जिसके बारे में आज हम इतिहासकार से जानेंगे.

कटेश्वर शिवलिंग की पौराणिक कथा
कच्छ के प्रसिद्ध इतिहासकार प्रमोदभाई जेठी से कोटेश्वर महादेव मंदिर के इतिहास की जानकारी लेते हुए उन्होंने बताया कि लोककथाओं के अनुसार यह कहानी रावण और देवाधिदेव महादेव से जुड़ी है. पौराणिक कथाओं के अनुसार, शिवभक्त रावण ने कैलाश में भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी. उसकी कठोर तपस्या के फलस्वरूप शिव ने उसे वरदान दिया. महान आध्यात्मिक शक्तियों वाला यह वरदान एक शिवलिंग के रूप में था. इस शिवलिंग को देने के बदले शिवजी ने रावण से कहा कि वह जहां भी यह शिवलिंग रखेगा वहीं स्थापित हो जाएगा.

कोटेश्वर शिवलिंग के स्थापना की कहानी
शिव की शर्त सुनकर रावण इस लिंग को लेकर लंका की ओर प्रस्थान कर गया. इससे चिंतित होकर उन्होंने ब्रह्मा से इसे रोकने का अनुरोध किया. तो रास्ते में ब्रह्माजी ने गाय का रूप धारण किया और नारायण सरोवर के पास गड्ढे में डूबने लगे. चूंकि रावण गाय प्रेमी था, इसलिए उसने एक हाथ में शिवलिंग पकड़कर गाय को बचाने की कोशिश की. हालांकि, फिर भी गाय को बाहर निकालने में असमर्थ रावण ने लिंग को नीचे गिरा दिया और गाय को बाहर निकाल दिया.

कोटेश्वर ज्योतिर्लिंग में मौजूद है ब्रह्मकुंड
गाय को बाहर निकालते वक्त रावण ने लिंग जहां रखा था वो वहीं स्थापित हो गया. इसलिए सहस्रलिंग होने के कारण रावण भी असली लिंग को नहीं पहचान सका. अंततः मूल शिव लिंग को पहचानने में असमर्थ रावण ने एक लिंग उठाया और चलने लगा. मूल लिंग वहीं रह गया. जहां कोटेश्वर का मंदिर बनाया गया था. जानकारी के मुताबिक इस मंदिर का जीर्णोद्धार सुंदरजी सोडागर ने करवाया था और जिस स्थान पर गाय फंसी थी उसे ब्रह्मकुंड के नाम से जाना जाता है.

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