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कौआ: लोकजीवन में संदेशवाहक और संस्कृत साहित्य में तिरस्कार


संस्कृत के महाकवियों ने कोयल या कहें कोकिला का खूब वर्णन किया है, लेकिन उसी रंग वाले कागा का तिरस्कार कर दिया है. अभिजात्य साहित्य से बहिष्कृत कौओं को लोक ने शरण दी. कौए को ‘मैसेंजर’ मान लिया गया. उर्दू साहित्य और अदब में जिक्र मिलता है कि कबूतर संदेश लाता ले जाता है. फिल्म में गाना आया -“कबूतर जा जा जा…” लेकिन लोकजीवन में कौआ सीधे संदेश ले आता है, वह भी बिना चिट्ठी बिना तार के. कहीं यह मेहमान के आने की सूचना देता है तो कहीं आंगन की मुंडेर से ‘उचर कर’ मामा के आने का संदेश देता है. आंगनों में बोल रहे कौए को देख गृहणियां हिंदी की बहुत सी लोक भाषाओं में कह उठती हैं – ए कौआ उचर, बबुआ के मामा आवत हंव ? (बोलो, ऐ कौआ बेटा के मामा आ रहे हैं.) कई कहानियों में तो भाई से मिलने की इच्छुक बहन ने कौए के चोंच में सोना मढ़वाने तक का वायदा कर दिया.

देश के बहुत सारे इलाकों में मैसेंजर है कौआ
ऐसा नहीं है कि कौआ के बोलने और अतिथि के आने की कहावत महज हिंदी पट्टी तक ही सीमित हो. देश के बहुत सारे दूसरे हिस्सों में भी यही माना जाता है. उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश के अलावा गुजरात, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, बंगाल में तो इसे मेहमान के आने के संकेत के रूप में देखा ही जाता है. केरल में भी यही माना जाता है.  न्यूज 18 मलयालम डिजिटल के संपादक चंद्रकांत बताते हैं – “पुरानी कहावत है, काक्का करनाजाल वीरुन्नुकर वारुम, मतलब कौआ बोल रहा है अतिथि आएगा.”  बिहार के अररिया के रहने वाले एक अन्य सहयोगी मनीष कुमार बताते हैं – “मैथिली में कहा जाता है – कौआ कुचरइ छे, मामा अइथिन.”

क्लासिक साहित्य में सम्मान क्यों नहीं ?
कौओं को क्लासिक साहित्य में सम्मानजनक स्थान क्यों नहीं मिला, इस बारे में याद आता है कि रामायण में इंद्र के पुत्र जयंत ने श्रीराम की शक्ति परखने के लिए माता सीता के वक्ष में चोंच से प्रहार कर दिया था. हालांकि बाबा तुलसी ने किसी एक कौए के दोष से पूरी काग जाति को बचाने की कोशिश की. लिखा कि कौए ने माता के चरण में प्रहार किया था. फिर भी कौआ जाति अपने इस पाप से मुक्त नहीं हो पाई. उसके हिस्से क्लासिक के कलमकारों का तिरस्कार ही आया.

शायद इसी शास्त्रीयता से रीतिकाल में बिहारी भी प्रभावित हुए. बिहारी सतसई में उन्होंने लिख डाला –

दिन दस आदरु पाइकै करि लै आपु बखानु।
जौ लौं काग सराध-पखु तौ लौं तौ सनमानु॥

यह भी मुमकिन है कि जिस तरह से पितरों को अर्पित किए जाने वाले कागबलि को ग्रहण करने का अधिकार कौए को मिला, उसे देखकर महाकवि बिहारी ने ये लाइनें कौए के लिए लिख दी हों. बहरहाल, एक और रोचक बात यह है कि जिस किसी भी बात का कोई कारण न मिल पाए उसे भी कौए के मत्थे डाल दिया जाता है. भारतीय दर्शन में कार्य-कारण सिद्धांत का बहुत महत्व है. लेकिन कुछ बातें ऐसी हो जाती हैं और उन्हें मानना जरूरी भी होता है तो उसे काकतालीय न्याय से सिद्ध कर लेते हैं.

काकतालीय न्याय
तो अब समझ लिया जाए यह काकतालीय न्याय क्या है. दरअसल, गणितीय पद्धति से दर्शन के तहत न्याय वाक्यों को स्थापित करते समय कहा गया कि अगर कोई भी कार्य हुआ तो उसका कारण जरूर होगा. लेकिन एक कौआ ताड़ के पेड़ पर बैठा. अचानक ताड़ का फल टूट गया और कौए के सिर पर गिर पड़ा. कौए का वजन इतना तो नहीं होता कि उसका वजन किसी ताड़ फल को तोड़ दे. लेकिन फल टूट गया. फल पका होगा. गिर गया। यह सिर्फ संयोग है, इसमें कार्य कारण सिद्धांत लागू नहीं होता. फिर भी इसे मान लिया गया कि आखिर संयोग भी तो कोई चीज होती है. लिहाजा कौए के इस गुण ने भारतीय कर्मकांड वगैरह की बहुत सारी बातों को मानने लायक बना दिया.

प्यास बुझाने में चतुराई – प्यासा कौआ
यह भी हो सकता है कौए के इसी गुण के कारण प्यासे कौए की कहानी रच दी गई हो. वही कंकड़ डालकर घड़े के निचले हिस्से का पानी पी लेने वाली कहानी. लेकिन इधर उधर खोजने पर संस्कृत साहित्य में पितर पक्ष में काग बलि खाने के लिए कौए का जिक्र मिलता है, लेकिन जब लोकजीवन में व्यापक स्तर पर कौए को अतिथियों के आने की पूर्व सूचना देने वाला मान लिया गया तो संस्कृत के भी कुछ श्लोक रचने पड़े. बृहस्पति संहिता में लिखा है.  शकुन शास्त्र को जन्म देने वाले इस ग्रंथ में कौए के शुभ संकेतों के साथ अशुभ संकेतों को भी शामिल किया गया है. लगता है ऐसा इसलिए भी किया गया कि लोग शुभ होने से ज्यादा यह जानने में उत्सुक रहते हैं कि कब उनका अहित होने का संकेत मिल रहा है। लिहाजा उन्होंने लिखा-

ऐन्द्र्यादिदिगवलोकी सूर्याभिमुखो रुवन् गृहे गृहिनः।
राजभयचोरबन्धनकलहाः स्युः पशुभयं चेति।।

इसका मतलब है कि अगर कौआ घर में सूर्य की ओर मुख करके बोलता है, तो घर के मालिक को राजा के भय, चोर, बंधन, झगड़े और पशुओं के लिए खतरे का सामना करना पड़ सकता है. बहरहाल, लोक के साथ रहा जाए तो ज्यादा आनंद है. वक्त के साथ अब  बहुत सारे लोगों के घरों में आंगन नही रह गए हैं लेकिन आंगन की दीवार पर बैठ बोलते कौए को देखकर माताओं का उनसे कहना कि कउवा उचर, बबुआ के मामा आवत हंव का? शायद ही कभी दिमाग से निकल पाए.

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