पौड़ी: उत्तराखंड को देवभूमि के नाम से जाना जाता है. यहां आयोजित होने वाले मेलों का विशेष महत्व है. इनमें से एक प्रमुख मेला है मंजूघोष कांडा मेला, जो पौड़ी जनपद के देहलचौरी में दीपावली के बाद आयोजित होता है. इस मेले में दूर-दूर से श्रद्धालु मंजूघोष महादेव को निशान चढ़ाने के लिए आते हैं. यह मेला क्षेत्र का सबसे बड़ा मेला माना जाता है, जिसमें लोग अपने गांवों से उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं.
मेला की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
मंजुघोष कांडा मेला समिति के अध्यक्ष द्वारिका प्रसाद भट्ट बताते हैं कि 8वीं सदी में शंकराचार्य ने मंजूघोष महादेव मंदिर का निर्माण करवाया था, जिसके बाद से हर वर्ष दीपावली के बाद इस मेले का आयोजन किया जा रहा है. यह मेला न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि यह गांवों की सुख-समृद्धि के लिए भी महत्वपूर्ण माना जाता है.
निशान चढ़ाने की परंपरा
इस मेले में लगभग 12 पट्टियों के 100 से अधिक गांवों के लोग भगवान मंजूघोष महादेव को निशान चढ़ाने आते हैं. श्रद्धालु यहां अपने जीवन में सुख-समृद्धि की कामना करते हैं. विशेष रूप से, ब्याही गई बेटियां, जिन्हें स्थानीय भाषा में ध्याणी कहा जाता है, भी बड़ी संख्या में आती हैं. वे यहां अपने प्रिय जनों से मिलती हैं और अपनी मन्नतें मांगती हैं, जिससे इसे ध्याणियों का मेला भी कहा जाता है.
पौराणिक मान्यता
पौराणिक कथाओं के अनुसार, इस स्थान पर एक कन्या मंजू ने भगवान शिव की कठोर तपस्या की थी. एक दैत्य ने उसकी साधना को भंग करने का प्रयास किया, लेकिन भगवान शिव प्रकट होकर दैत्य का संहार कर देते हैं. तभी से इस स्थान को श्रद्धा के साथ पूजा जाता है. पहले मनोकामना पूर्ण होने पर पशु बलि देने की प्रथा थी, लेकिन अब श्रद्धालु केवल पूजा अर्चना कर निशान अर्पित करते हैं.
दूर-दराज से आने वाले श्रद्धालु
इस मेले में शामिल होने के लिए ग्रामीण दूर-दराज से निशान लेकर आते हैं. ये श्रद्धालु ढोल और दमाऊं की धुन पर कई किलोमीटर पैदल चलकर मंजूघोष महादेव के जयकारों के साथ पहुंचते हैं. प्रत्येक गांव के निशान अलग-अलग होते हैं, जो गांव की समृद्धि के लिए चढ़ाए जाते हैं. आदिगुरु शंकराचार्य के समय में इस क्षेत्र को शिव क्षेत्र कहा गया था, और आज भी ग्रामीण इसी परंपरा का पालन करते हैं.
FIRST PUBLISHED : November 4, 2024, 10:45 IST
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