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Khandwa News: खंडवा जिले के खालवा ब्लॉक में गोंड जनजाति मेघनाद की पूजा करती है. रंगपंचमी से चौदस तक लगने वाले मेले में झंडा तोड़ प्रतियोगिता होती है, जिसमें युवा चिकने खंभे पर चढ़ते हैं. महिलाएं बांस की छड़ियों…और पढ़ें
इस तरीके से मेघनाद की पूजा होती है पूरा गांव इस पूजा को करता है
हाइलाइट्स
- खंडवा में गोंड जनजाति मेघनाद की पूजा करती है.
- रंगपंचमी से चौदस तक विशेष मेले का आयोजन होता है.
- मेले में झंडा तोड़ प्रतियोगिता मुख्य आकर्षण है.
खंडवा. मध्यप्रदेश के खंडवा जिले के आदिवासी ब्लॉक खालवा में गोंड जनजाति द्वारा रावण के पुत्र मेघनाद की पूजा एक अनूठी परंपरा के रूप में की जाती है. यहां हर साल रंगपंचमी से लेकर चौदस तक विशेष मेले का आयोजन होता है. इस मेले का मुख्य आकर्षण झंडा तोड़ प्रतियोगिता होती है जो साहस और शक्ति की परीक्षा मानी जाती है.
कुम्हार खेड़ा में आयोजित इस मेले के लिए 50 से 60 फीट ऊंचा खंभा तैयार किया जाता है. इस खंभे को कई दिनों तक तेल, साबुन और सर्फ से पोतकर अत्यधिक चिकना बनाया जाता है. खंभे के ऊपर लाल कपड़े में नारियल, बतासे और नगद इनाम बांधा जाता है. युवा इस खंभे पर चढ़कर झंडा तोड़ने का प्रयास करते हैं जो काफी चुनौतीपूर्ण होता है.
महिलाएं और युवतियां भी निभाती हैं अहम भूमिका
मेले की एक खास बात यह है कि महिलाएं और युवतियां हाथों में हरे बांस की लकड़ी लेकर सजधज कर पहुंचती हैं. वे खंभे पर चढ़ने वाले युवाओं को बांस की लकड़ी से मारकर रोकने की कोशिश करती हैं. ढोल-नगाड़ों की गूंज के बीच जब कोई युवा झंडा तोड़ने में सफल हो जाता है, तो उसे विजेता घोषित किया जाता है और पूरे गांव में उसका सम्मान किया जाता है.
मेघनाद बाबा को चढ़ाई जाती है बलि
गोंड समाज मेघनाद को अपना आराध्य देवता मानता है. उन्हें प्रसन्न करने और प्रकोप से बचने के लिए मुर्गे और बकरे की बलि चढ़ाई जाती है. समुदाय का मानना है कि मेघनाद बाबा के आशीर्वाद से समाज में सुख-शांति बनी रहती है और फसलों की पैदावार अच्छी होती है. इसलिए होली के बाद फसल कटाई के समय विशेष पूजा की जाती है.
केवल मेघनाद की होती है पूजा
यहां के गोंड आदिवासी रावण की पूजा नहीं करते. वे केवल मेघनाद को देवता मानते हैं. उनके लिए अन्न, जल, सूर्य और चंद्रमा की तरह मेघनाद भी प्रकृति का प्रतीक हैं. इस वार्षिक मेले में पूरा समाज एकत्र होता है, पूजा करता है और परंपराओं के साथ मेले का आनंद लेता है. यह परंपरा श्रद्धा और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक मानी जाती है.







