
एक बार महादेव जी भोगावती नदी पर स्नान करने गए . उनके चले जाने के बाद पार्वती माता ने अपने तन के शुद्ध व चैतनयित मल से छोटे से बालक का एक पुतला बनाया और उसमें प्राण डाले. उसका नाम गणेश रखा. पार्वती माता ने उस बालक से कहा कि तुम द्वार पर बैठ जाओ और जब तक मैं नहा रही हूं किसी को अंदर मत आने देना.
नदी में स्नान करने के बाद जब भगवान शिव जी वहाँ पहुंचे तो गणेश जी ने उन्हें द्वार पर ही रोक लिया. शिवजी ने बहुत समझाया पर गणेश जी नहीं माने. भगवान शिव वास्तव में क्रोधित हो गए और त्रिशूल का उपयोग करके उसका सिर काट कर भीतर चले गए. बाद में जब माता पार्वती को पता चला कि क्या हुआ तो वह भी बहुत क्रोधित हुईं.
देवताओं ने गणेश जी को तमाम शक्तियां प्रदान की और प्रथम पूज्य बनाया. यह घटना भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को हुई थी इसलिए इस तिथि को पुण्य पर्व ‘गणेश चतुर्थी’ के रूप में मनाया जाता है.

गणेश चतुर्थी व्रत की दूसरी कथा
पूर्वकाल में राजाओं में श्रेष्ठ राजा नल था उसकी रूपवती रानी का नाम दमयन्ती था. शाप वश राजा नल को राज्यच्युत खोना पड़ा और रानी के वियोग से कष्ट सहना पड़ा. तब दमयन्ती ने इस व्रत के प्रभाव से अपने पति को प्राप्त किया. राजा नल के ऊपर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा था. डाकुओं ने उनके महल से धन, गजशाला से हाथी और घुड़शाला से घोड़े हरण कर लिए, तथा महल को अग्नि से जला दिया. राजा नल भी जुआ खेलकर सब हार गए.
शरभंग मुनि के कहने पर दमयन्ती ने भादों की गणेश चौथ को व्रत आरम्भ किया और सात मास में ही अपने पुत्र और पति को प्राप्त किया. इस व्रत के प्रभाव से नल ने सभी सुख प्राप्त किये. विघ्न का नाश करने वाला तथा सुखा देने वाला यह सर्वोतम व्रत है.

गणेश चतुर्थी व्रत की तीसरी कथा
एक बार भगवान शंकर माता पार्वती के साथ नर्मदा नदी के तट पर गये और वहां पार्वती जी के साथ चौपड़ खेलने की इच्छा जताई. हार जीत का निर्णय कौन करे इसके लिए पार्वती जी ने घास के तिनकों का एक पुतला बनाकर उसे कहा कि बेटा हार जीत का निर्णय तुम्हीं करना. संयोग से तीन बार लगातार पार्वती ही जीतीं लेकिन जब निर्णय सुनाने की बारी आई तो बालक ने भगवान शंकर को विजयी बताया. इससे क्रुद्ध होकर माता पार्वती ने उसे एक पैर से लंगड़ा होने और कीचड़ में रहने का शाप दे दिया. बालक ने जब अपनी अज्ञानता के लिए माफी मांगी तो माता पार्वती को उस पर दया आ गई और उन्होंने कहा कि ठीक है यहां नाग कन्याएं गणेश पूजन के लिए आएंगी तो उनके उपदेश से तुम गणेश व्रत करके मुझे प्राप्त करोगे. इसके बाद वह भगवान के साथ कैलाश पर्वत पर चली गईं. लगभग एक वर्ष बाद श्रावण माह में नाग कन्याएं गणेश पूजन के लिए वहां आईं. नाग कन्याओं ने गणेश व्रत करने की विधि उस बालक को भी बताई तो उसने भी 12 दिनों तक गणेशजी का व्रत किया. गणेशजी उस बालक के व्रत से प्रसन्न हुए और उसे मनवांछित फल मांगने के लिए कहा.
बालक ने कहा कि भगवान मेरे पैरों में इतनी शक्ति दे दो कि मैं खुद से चल कर कैलाश पर्वत पर अपने माता−पिता के पास जा सकूं. भगवान गणेशजी ने बालक की इच्छा पूरी कर दी. जिससे बालक कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर के पास जा पहुंचा. जब भगवान ने उससे पूछा कि वह यहां तक कैसे आया तो उसने गणेश व्रत की महिमा बता डाली. नर्मदा नदी के तट पर हुई घटना के बाद से माता पार्वती भी भगवान शंकर से अप्रसन्न चल रही थीं इसलिए भगवान शंकर ने भी गणेश व्रत किया तो माता पार्वती भागी−भागी उनके पास आईं और पूछा कि आपने ऐसा क्या किया कि मैं आपके पास भागी−भागी चली आई तो उन्होंने गणेश व्रत के बारे में बताया. इसके बाद माता पार्वती ने गणेश व्रत किया जिससे उनके पुत्र कार्तिकेय उनके पास आ गये. उन्होंने भी अपनी मां के मुख से इस व्रत के माहात्म्य के बारे में सुनकर यह व्रत किया और इस व्रत के बारे में विश्वामित्र जी को बताया. इस प्रकार इस व्रत के माध्यम से गणेशजी ने जैसे इन सभी की मनोकामना पूरी की उसी प्रकार वह इस व्रत को करने वाले हर श्रद्धालु की मनोकामना पूरी करते हैं.