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Dussehra: अपनी प्रजा के लिए कैसा था रावण – शास्त्रों में क्या कहा है


आज दशहरा है यानि रावण दहन का दिन. भगवान राम ने लंका में इसी दिन रावण को मारकर युद्ध में जीत हासिल की थी. इस जीत को असत्य पर सत्य की जीत भी कहा जाता है. बुराइयों पर अच्छाई की विजय भी. सात्विक शक्तियों की बुराई पर जीत. रावण को हम “राक्षसों का राजा” और “सीता हरण करने वाला खलनायक” मानते हैं, लेकिन शास्त्रों और अन्य ग्रंथों में रावण को एक राजा के तौर पर क्या कहा गया है. वो अपनी प्रजा के लिए कैसा था. किस तरह उसने लंका पर शासन किया.

उसके राज्य में आपराधिक गतिविधियां करीब करीब नहीं थीं, सभी नियमों का पालन होता था. रावण ने कई द्वीप-समूहों को जीतकर रक्षा संस्कृति की स्थापना की, अनेक जातियों को संगठित किया. उन्हें आत्मसम्मान व शक्ति दी.

शास्त्रों के अनुसार, रावण अत्यंत ज्ञानी, राजनीतिज्ञ, आयुर्वेद-विद्वान और महान वीणा-वादक था; वह चारों वेद और अनेक शास्त्रों का ज्ञाता था, लेकिन उसकी बुराइयां भी उसे घेरती रहीं.

वाल्मीकि रामायण, उत्तर काण्ड और कई पुराणों में रावण को “लंकेश्वर” यानी लंका का सर्वोच्च शासक बताया गया है. उसका साम्राज्य सोने की लंका थी, जिसे वास्तुकला, वैभव और व्यवस्था का अद्भुत उदाहरण माना जाता था. माना जाता है कि विश्वकर्मा ने यह नगरी कुबेर के लिए बनाई थी, लेकिन रावण ने अपने सौतेले भाई को हराकर इस जगह को अपने अधिकार में ले लिया.

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हनुमान लंका की भव्यता देख हैरान रह गए थे

लंका की नगरी सोने की दीवारों और मणियों से जड़ी थी. वहां की प्रजा समृद्ध, व्यापार में निपुण और सुरक्षित मानी जाती थी. समुद्र से जुड़े रास्तों पर उसका नियंत्रण था, जिससे व्यापार और वाणिज्य फलता-फूल रहा था. वाल्मीकि रामायण के सुंदरकाण्ड (5.5.22-28) में कहा गया है कि जब हनुमान लंका पहुंचते हैं तो वहां की समृद्धि और भव्यता को देखकर चकित रह जाते हैं.

रावण अपनी प्रजा के लिए न्यायप्रिय शासक था. रामचरितमानस और कम्ब रामायण जैसे ग्रंथों में उल्लेख है कि उसकी प्रजा भयमुक्त और सुखी थी. लंका में “दारिद्र” या “भय” का नामोनिशान तक नहीं था. रावण अपनी प्रजा से कर लेता था लेकिन बदले में सुरक्षा, व्यापार और समृद्धि देता था.

प्रजा को कोई शिकायत नहीं थी

कई विद्वानों के अनुसार, रावण की प्रजा को उससे शिकायत नहीं थी, क्योंकि उसने प्रशासनिक दृष्टि से सबको संरक्षण दिया था. उसका दमन अधिकतर शत्रुओं और देवताओं के प्रति था, न कि अपनी प्रजा पर. रामचरितमानस (लंका काण्ड) में तुलसीदास ने लंका का वैभव और व्यवस्था के बारे में बताते हुए ये बताया है. यहां तक जब भगवान राम ने उसे हराया और मार दिया तो मरणासन्न रावण से लक्ष्मण को राज्य और नीति की शिक्षा लेने कहा था.

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लंका में शिक्षा और विद्या का माहौल था

शिव पुराण और पद्म पुराण रावण को महान शिवभक्त और विद्या-प्रेमी बताते हैं. इन ग्रंथों के अनुसार, रावण केवल योद्धा ही नहीं, बल्कि बड़ा विद्वान और संगीतज्ञ भी था. उसे शिव भक्त और विद्वानों का संरक्षक कहा गया है. उसने शिव तांडव स्तोत्र की रचना की, जो आज भी संस्कृत साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों में गिना जाता है. आयुर्वेद और ज्योतिष पर उसकी विद्वत्ता के प्रमाण मिलते हैं. इसका सीधा असर उसकी प्रजा पर भी पड़ा. लंका में उच्च शिक्षा और विद्या का वातावरण था.

प्रजा भयमुक्त थी

वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड में रावण की सामरिक शक्ति और उसकी सेनाओं का उल्लेख है. उसने लंका को समुद्र-मार्ग से सुरक्षित बनाया. बाहरी आक्रमणकारियों और देवताओं के विरुद्ध कठोर नीति अपनाई. वह कुशल राजनीतिज्ञ और युद्धनीति का जानकार था. इस कारण उसकी प्रजा को अन्य राज्यों से आक्रमण का भय नहीं था.

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रावण की कमजोरियां सभी को ले डूबीं

हालांकि प्रजा-नीति की दृष्टि से रावण श्रेष्ठ था, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर उसका अहंकार और स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण उसके चरित्र की बड़ी कमजोर थीं. सीता हरण इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. वह शक्ति और बल पर इतना विश्वास करता था कि “धर्म” की मर्यादा तक तोड़ दी. उसका अहंकार प्रजा के बजाय देवताओं और ऋषियों के विरुद्ध था लेकिन उसका परिणाम आखिरकार पूरे राज्य को भुगतना पड़ा.

रावण प्रजा के लिए आदर्श राजा था

आर.के. नारायण और सी. राजगोपालाचारी की रामायण व्याख्याओं में लिखा है कि रावण अपनी प्रजा के लिए आदर्श राजा था, लेकिन उसकी व्यक्तिगत कमजोरियों ने उसके साम्राज्य का पतन किया. आधुनिक इतिहासकार रामशरण शर्मा मानते हैं कि रावण का चरित्र प्राचीन भारत की उस मानसिकता का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें एक शासक भले ही प्रजावत्सल हो, लेकिन जब धर्म की मर्यादा तोड़ेगा तो उसका पतन पक्का हो जाता है.

अगर प्रजा के दृष्टिकोण से देखा जाए तो रावण संपन्न, शक्तिशाली और न्यायप्रिय शासक था. उसकी प्रजा सुखी थी, भयमुक्त थी और उन्हें किसी कमी का अनुभव नहीं था. लंका व्यापार और संस्कृति का केंद्र थी. लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर रावण का अहंकार और कामासक्ति उसके पतन का कारण बना. तब उसकी गलतियों का दंड केवल उसे ही नहीं, उसकी प्रजा और राज्य को भी भोगना पड़ा.

लंका की जनता और परिवार के सदस्य रावण से प्रेम करते थे, विभीषण के शासन को जन विरोधी बताया गया शास्त्रों में. आधुनिक व्याख्याओं में रावण को महान राष्ट्रभक्त और कुशल संगठक माना गया है, लेकिन उसकी कमजोरियां उसके खत्म होने का कारण बनीं.

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