देखिए, स्कूलों में शिक्षक अक्सर बच्चों से कहते हैं कि गुस्सा मत करो या दुखी मत हो. लेकिन कोई भी आपको यह नहीं सिखाता कि गुस्से को कैसे नियंत्रित किया जाए या इस बेचैन मन और नकारात्मक भावनाओं का सामना कैसे किया जाए. हम बच्चों को शारीरिक स्वच्छता रखना सिखाते हैं, लेकिन मानसिक स्वच्छता के बारे में नहीं सिखाते. मानसिक स्वच्छता क्या है? अपने मन की देखभाल करना ही मानसिक स्वच्छता है. हर कोई साफ कपड़े पहनना पसंद करता है; हर कोई रोज नहाता है. उसी तरह, प्रतिदिन की घटनाओं की छाप जो हमारे मन पर पड़ जाती है, मन को उनसे मुक्त रखना हमें सीखना चाहिए.
मानसिक स्वच्छता आवश्यक है, जिसे आप ध्यान जैसी प्रथाओं से बनाए रख सकते हैं. हर दिन कुछ समय निकालकर मन को सचेत रूप से आराम देना और अपने आप में विश्राम करना वैसा ही है, जैसे अपने कंप्यूटर में सभी अनावश्यक फ़ाइलों को डिलीट बटन से हटाना. हम बच्चों को बहुत छोटी उम्र से दांत ब्रश करना सिखाते हैं, ताकि उनके दांत स्वस्थ रहें और उनकी मुस्कान बरकरार रहे. लेकिन एक मुस्कान केवल स्वस्थ दांतों से नहीं आती, बल्कि एक सुखद मानसिक स्थिति से आती है, जिसे ध्यान से शुरू किया जा सकता है. और फिर यह हमें कहाँ ले जाता है? क्या यह केवल मानसिक स्वच्छता तक सीमित है? नहीं, यह हमें हमारे भीतर एक अन्य आयाम तक ले जाता है, जो सभी संभावनाओं का क्षेत्र है.
क्या ध्यान सभी के लिए है?
यह मानव जीवन की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वे ऐसी खुशी की तलाश करते हैं, जो कभी न घटे, एक ऐसा प्यार जो विकृत न हो या नकारात्मक भावनाओं जैसे गुस्से, घृणा या जलन में न बदल जाए. आराम की चाह स्वाभाविक है, क्योंकि आपने अपने माँ के गर्भ में उस अपूर्व आराम की अवस्था का अनुभव किया है. माँ के गर्भ में आपको कुछ नहीं करना होता था. खाना सीधे आपके पेट में पहुंचता था और आप खुशी से तरल में तैरते रहते थे, मुड़ते और लात मारते रहते थे. वही ध्यान है, और ध्यान है पूर्ण आराम. ध्यान एक कला है. हर व्यक्ति के पास दस उंगलियाँ होती हैं और बस यह सीखने की आवश्यकता होती है कि उनके द्वारा किसी वाद्य यंत्र से मधुर संगीत कैसे निकाला जाए. उसी तरह आपके पास एक मन है जिससे आप सोच सकते हैं और ध्यान भी कर सकते हैं.
जब मन शांत और केंद्रित हो जाता है, तब भीतर स्थित अपार बुद्धि और ऊर्जा तक पहुँच पाता है. ध्यान में आपको गहरी विश्रांति मिलती है, फिर भी आप सजग और सचेत बने रहते हैं. ध्यान करने के लिए आपको हिमालय जाने की आवश्यकता नहीं है, न ही संन्यासी बनने की, न जीवनशैली बदलने की, और न ही कठोर तप करने की. आप किसी योग्य प्रशिक्षक के साथ ध्यान सीखना आरंभ कर सकते हैं, जो आपको मंत्र के माध्यम से मन को शांत करना सिखाए. पहली ही बार में आप कुछ अद्भुत अनुभव करते हैं. फिर, जब आप प्रतिदिन एक या दो बार नियमित अभ्यास करते हैं, तो आप अपने भीतर एक बड़ा परिवर्तन महसूस करते हैं और सिर्फ आप ही नहीं, आपके आसपास के लोग भी आपके भीतर की उस सुंदर ऊर्जा को पहचानने लगते हैं.
ध्यान का अनुभव कैसे हो?
कुछ उपायों से आप स्वयं को अच्छी ध्यानावस्था के लिए तैयार कर सकते हैं.
- 1. जब हमारा शरीर कुछ विशेष आसन एक निश्चित लय के साथ करता है, तो मन स्वतः ध्यान में प्रविष्ट हो जाता है.
- 2. प्राणायाम से मन शांत और स्थिर होता है और आप सहज ही ध्यान में प्रवेश कर सकते हैं.
- 3. किसी एक इंद्रिय विषय में सौ प्रतिशत तल्लीन होना ध्यान की अवस्था में ले जाता है. बस लेट जाएँ और आकाश को देखें, या हल्का शास्त्रीय संगीत सुनते समय पूरे मन से सुनने में डूब जाएँ. एक क्षण आता है जब मन स्थिर हो जाता है.
- 4. भावनाओं के द्वारा भी ध्यान की अवस्था प्राप्त हो सकती है. जब आप पूरी तरह निराश हों या बहुत क्रोधित, तो आप कहते हैं, “मैं हार मानता हूँ.”, “बस, अब मुझसे नहीं होता.” उन क्षणों में यदि आप हताशा, अवसाद या हिंसा में न फिसलें, तो आप पाएँगे कि एक क्षण ऐसा आता है जब मन बिल्कुल ठहर जाता है.
- 5. और एक अन्य तरीका है जिसे ज्ञान योग कहते हैं. जब आप ब्रह्मांड की विशालता के प्रति सजग होते हैं, आप कौन हैं? क्या हैं? इस अनंत ब्रह्मांड के संदर्भ में कहाँ हैं? तो कुछ भीतर बदलाव आता है और तत्काल स्थिरता का उदय होता है.
सहजता से ध्यान करने के लिए मैं अक्सर तीन सिद्धांत देता हूँ.
पहला – अचाह, अर्थात “मुझे कुछ नहीं चाहिए.” जब आप ध्यान के लिए बैठें, तो अपने सभी इच्छाओं को कुछ देर के लिए अलग रख दें. बाद में उन्हें वापस ले सकते हैं.
दूसरा – अप्रयत्न, अर्थात “मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ.” ध्यान किसी कार्य की तरह नहीं है—न ध्यान लगाने की कोशिश करनी है, न विचारों को भगाना है, न मन को जबरन केंद्रित करना है. बस छोड़ देना है. जैसे बहुत कसकर मुट्ठी बाँधने के बाद उसे ढीला छोड़ देना.
तीसरा – अकिंचन, अर्थात “मैं कुछ नहीं हूँ.” हम अपने ऊपर अनेक लेबल लगाते हैं—“मैं बुद्धिमान हूँ,” “मैं मूर्ख हूँ,” “मैं अमीर हूँ,” “मैं गरीब हूँ,” “मैं पवित्र हूँ,” “मैं पापी हूँ.” ध्यान में बैठते समय इन सभी लेबलों को छोड़ दें. उन कुछ क्षणों के लिए बस ‘कोई नहीं’ बन जाएँ. जब आप कहते हैं, “मुझे कुछ नहीं चाहिए हूँ, मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ, मैं कुछ नहीं हूँ,” तो मन मुक्त हो जाता है. आप उस सुंदर शून्यता के क्षेत्र में उतर जाते हैं और वही शून्य सब कुछ का आधार है. ध्यान गति से स्थिरता तक, ध्वनि से मौन तक की यात्रा है.
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