Hinglaj Mata: नाथ संप्रदाय हठयोग की साधना पर केंद्रित योगियों का एक प्रभावशाली समुदाय है. इस संप्रदाय में दीक्षा लेने के लिए कान छिदवाना अनिवार्य होता है, जिसे तांत्रिक वज्रयान का ही सात्विक रूप माना जाता है. इस पंथ में ‘अवधूत’ होते हैं और एक विशेष परंपरा यह भी है कि नाथ संप्रदाय के योगियों का दाह संस्कार नहीं किया जाता है. माना जाता है कि इस संप्रदाय का उद्गम स्वयं आदिनाथ शंकर से हुआ, लेकिन इसे इसका वर्तमान स्वरूप महायोगी गोरखनाथ ने प्रदान किया, जिन्हें भगवान शंकर का अवतार माना जाता है.
जहां गिरा था माता सती का सिर
नाथ संप्रदाय माता हिंगलाज को अपनी कुलदेवी के रूप में पूजता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब देवी सती के वियोग में दुखी भगवान शिव उनका पार्थिव शरीर लेकर तीनों लोकों में भ्रमण करने लगे, तब सृष्टि को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के देह को 51 टुकड़ों में विभक्त कर दिया. सती के अंग जहां-जहां गिरे वे स्थान शक्तिपीठ कहलाए. उदाहरण के लिए केश गिरने से महाकाली, नेत्र (आंखें) गिरने से नैना देवी, कुरुक्षेत्र में टखना (गुल्फ) गिरने से भद्रकाली और सहारनपुर के पास शिवालिक पर्वत पर शीश गिरने से शाकम्भरी शक्तिपीठ बना. इन्हीं 51 टुकड़ों में से माता सती के शरीर का ब्रह्मरंध्र वाला हिस्सा (सिर) हिंगोल नदी के पश्चिमी तट पर स्थित किर्थर पर्वतमाला की एक गुफा में गिरा था. इसी पवित्र स्थल पर उन्हें हिंगलाज माता के रूप में पूजा जाता है, जो नाथ संप्रदाय के लिए सर्वोच्च पूजनीय देवी हैं.
बलूचिस्तान में है हिंगलाज माता मंदिर
नाथ संप्रदाय की कुलदेवी हिंगलाज माता का गुफा मंदिर पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में लारी तहसील के पहाड़ी क्षेत्र में स्थित है. यह कराची से उत्तर-पश्चिम दिशा में लगभग 250 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद है. यह मंदिर हिंगोल नदी के पश्चिमी तट पर मकरान रेगिस्तान की खेरथार पहाड़ियों की एक शृंखला के अंतिम छोर पर बना हुआ है. यह पूरा क्षेत्र हिंगोल राष्ट्रीय उद्यान के अंतर्गत आता है. हिंगलाज माता का यह मंदिर एक छोटी प्राकृतिक गुफा में है. जिसकी सबसे खास बात यह है कि यहां देवी की कोई मानव निर्मित प्रतिमा नहीं है. इसके बजाय एक मिट्टी की वेदी बनी हुई है जिसे श्रद्धालु हिंगलाज माता के रूप में पूजते हैं. मंदिर परिसर के आस-पास कई अन्य महत्वपूर्ण पूजास्थल भी हैं, जिनमें गणेशजी, माता काली, गुरु गोरखनाथ, ब्रह्म कुंड, त्रिकुंड, गुरुनानक खाराओ, रामझरोखा बैठक, अनिल कुंड, चंद्र गोप, खारिवर और अघोर पूजा शामिल हैं.
अमरनाथ यात्रा से भी दुर्गम डगर
अमरनाथ यात्रा को अत्यंत कठिन माना जाता है, लेकिन हिंगलाज माता मंदिर तक पहुंचना इससे भी अधिक चुनौतीपूर्ण बताया जाता है. इस दुर्गम यात्रा मार्ग पर श्रद्धालुओं को 1000 फीट ऊंचे पहाड़, विशाल और सुनसान रेगिस्तान, जंगली जानवरों से भरे घने जंगल और यहां तक कि 300 फीट ऊंचे मड ज्वालामुखी (कीचड़ के ज्वालामुखी) का भी सामना करना पड़ता है. प्राकृतिक बाधाओं के साथ ही इस क्षेत्र में डाकुओं और आतंकवादियों का खतरा भी लगातार बना रहता है. सुरक्षा और सहयोग के मद्देनजर यहां अकेले यात्रा करने की अनुमति नहीं है. यात्रियों को 30 से 40 श्रद्धालुओं का समूह बनाकर ही आगे बढ़ना होता है. वर्तमान में श्रद्धालुओं को 55 किलोमीटर की पैदल यात्रा चार पड़ावों में पूरी करनी पड़ती है. हालांकि, पहले के समय में हिंगलाज मंदिर तक पहुंचने के लिए 200 किलोमीटर की पदयात्रा करनी होती थी, जिसमें लगभग तीन महीने का समय लग जाता था.
यात्रा से पहले लेनी होती हैं दो विशेष शपथ
हिंगलाज माता के दर्शन के लिए प्रस्थान करने वाले श्रद्धालुओं को यात्रा शुरू करने से पहले दो विशेष शपथ लेना अनिवार्य होता है. भक्तों को पहली यह प्रतिज्ञा लेनी होती है कि हिंगलाज माता के दर्शन करके सुरक्षित वापस लौटने तक वे संन्यासी जीवन का पालन करेंगे. उन्हें यह वचन देना होता है कि यात्रा के दौरान वे अपनी सुराही (पानी रखने का पात्र) का पानी अपने किसी भी सहयात्री को नहीं देंगे. मान्यता है कि ये दोनों शपथ जो भगवान राम के समय से चली आ रही हैं, भक्तों के समर्पण की परीक्षा हैं. यदि कोई श्रद्धालु इन दोनों प्रतिज्ञाओं को पूरा नहीं कर पाता है तो उसकी यात्रा को पूर्ण नहीं माना जाता है.
मंदिर तक पहुंचने का मार्ग और 5 प्रमुख पड़ाव
हिंगलाज माता मंदिर की यात्रा में श्रद्धालुओं को कुल पांच महत्वपूर्ण पड़ाव पार करने पड़ते हैं.
चंद्रकूप (मड ज्वालामुखी): यह पहला और प्रमुख पड़ाव है, जिसे मड ज्वालामुखी भी कहा जाता है. यहां श्रद्धालु लगभग 300 फीट ऊंचे शिखर पर नारियल और अगरबत्ती चढ़ाते हैं और फिर चंद्रकूप के दर्शन करते हैं.
अघोर नदी: चंद्रकूप के बाद श्रद्धालु अघोर नदी पर पहुंचते हैं. यात्रा में आगे बढ़ने से पहले इस नदी में पवित्र स्नान करना आवश्यक माना जाता है.
चौरासी धाम (चौरासी कुंड): स्नान के बाद यात्रियों का समूह चौरासी कुंड, जिसे चौरासी धाम भी कहते हैं पर पहुंचता है. माना जाता है कि इस स्थान का निर्माण गुरु गोरखनाथ के शिष्यों ने करवाया था. यह पड़ाव पूरी यात्रा का सबसे कठिन हिस्सा माना जाता है.
अलैल कुंड: चौथे पड़ाव पर अलैल कुंड आता है. यात्री इसका जल पीकर आगे बढ़ते हैं और कई श्रद्धालु इस पवित्र जल को अपने साथ भी ले जाते हैं.
मंदिर के सामने का कुंड: यह यात्रा का अंतिम और निर्णायक पड़ाव है, जो सीधे हिंगलाज माता मंदिर के सामने स्थित है. मान्यता है कि इस कुंड में स्नान करने से भक्तों के सभी पाप धुल जाते हैं. यहां श्रद्धालु अपने पुराने वस्त्र त्याग कर नए पीले वस्त्र धारण करते हैं. इसके बाद वे अंततः माता हिंगलाज के दर्शन के लिए गुफा के भीतर प्रवेश करते हैं.
मुस्लिम समुदाय की भी है अगाध आस्था
हिंगलाज माता मंदिर पर न केवल दुनियाभर के हिंदुओं की, बल्कि स्थानीय मुस्लिम समुदाय की भी गहरी और अटूट आस्था है. यही कारण है कि यह समुदाय मंदिर की सुरक्षा में भी सहयोग करता है. मुस्लिम समाज के लोग इस मंदिर को आदरपूर्वक ‘नानी का मंदिर’ या ‘बीबी नानी’ (सम्मानित मातृ दादी) कहकर पुकारते हैं. कुछ शोधों के अनुसार, ‘नानी’ शब्द का संबंध ‘नाना’ नामक पूज्य देव से हो सकता है, जिनकी पूजा कुषाण काल के सिक्कों पर पश्चिम और मध्य एशिया में की जाती थी. प्राचीन परंपरा का निर्वाह करते हुए स्थानीय मुस्लिम जनजातियां भी हिंदू तीर्थयात्रियों के समूहों में शामिल होती हैं और इस कठिन यात्रा को सम्मानपूर्वक ‘नानी का हज’ कहकर संबोधित करती हैं.