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Jagadhatri Puja 2025: कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पश्चिम बंगाल, ओडिशा और त्रिपुरा में जगद्धात्री पूजा की जाएगी. वहीं उत्तर भारत में इस तिथि को आंवला नवमी का पर्व मनाया जाता है. माता के इस स्वरूप की पूजा अर्चना करने से सभी इच्छाएं पूरी होती हैं. आइए जानते हैं जगद्धात्री माता की पौराणिक कथाएं और किस तरह हुई बंगाल में माता की पूजा…
Jagadhatri Puja 2025: 31 अक्टूबर दिन शुक्रवार से जगद्धात्री पूजा का आरंभ होने वाला है, माना जाता है कि इस समय मां दुर्गा सृष्टि की धात्री के रूप में पृथ्वी लोक पर आती हैं. बंगाल में दुर्गा पूजा की धूम के बारे में सभी ने सुना होगा, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को मां जगद्धात्री की पूजा होती है. यह पर्व ना सिर्फ धार्मिक है बल्कि आत्मसंयम और अहंकार पर विजय प्राप्त करने का संदेश देता है. जगद्धात्री पूजा ना केवल बंगाल में बल्कि ओडिशा और त्रिपुरा में भी की जाती है. मान्यता है कि जगद्धात्री पूजा करने से जीवन के सभी कष्ट माता दूर कर देती हैं और परिवार में सुख-शांति और समृद्धि बनी रहती है.

ऐसा है जगद्धात्री माता का स्वरूप
जगद्धात्री का अर्थ है जगत की धारक. जगद्धात्री माता ही संपूर्ण सृष्टि का पालन करती हैं और भक्तों की इच्छाएं पूरी करती हैं. जगद्धात्री माता बेहद सौम्य, सात्विक और शांत है. माता को सभी शक्तियां, नियंत्रण और धैर्य की देवी माना जाता है. माता की कृपा से ही व्यक्ति को अज्ञान और अंहकार पर विजय मिलती है. माता की सवारी सिंह है और उनके चार हाथों में धनुष-बाण, शंख, चंक्र सुशोभित हैं और एक हाथ से माता सभी को आशिष दे रही हैं. माता के नीचे एक दबा हुआ गज यानी हाथी है, जो अंहकार और अज्ञानता का प्रतीक है. माता के त्रिनेत्र हैं और वह लाल वस्त्र धारण करती हैं, जो शक्ति का प्रतीक है. भूत, भविष्य और वर्तमान, माता तीनों काल की अधिष्ठात्री देवी हैं.
मां जगद्धात्री की पौराणिक कथा
जगद्धात्री माता के पीछे एक पौराणिक कथा भी प्रचलित है, जिसमें बताया गया है कि महिषासुर पर विजय प्राप्त होने के बाद देवताओं को अहंकार हो गया था. वे माता रानी की शक्तियों को भूलकर अहंकारी जैसा व्यवहार करने लगे थे, जिसके बाद उन्हें सबक सिखाने के लिए मां दुर्गा ने जगद्धात्री का अवतार लिया था. उन्होंने देवताओं को एक तिनका हटाने के लिए कहा और देवताओं की तमाम कोशिश के बाद भी वे इसे हटा नहीं पाए और फिर उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने माता से क्षमा याचना की. इसके अलावा, एक अन्य कथा भी प्रचलित है, जिसके अनुसार देवी ने हस्तिरूपी करिंद्रासुर नाम के असुर का वध किया था, जिसके बाद देवी की सवारी सिंह के नीचे हाथी की छवि भी होती है.
इस तरह शुरू हुई जगद्धात्री पूजा
पश्चिम बंगाल में देवी जगद्धात्री के पूजन की शुरुआत 18वीं शताब्दी में हुई थी. कहा जाता है कि वहां के राजा कृष्णचंद्र राय ने दुर्गा पूजा के दौरान माता की पूजा नहीं की थी. इसके पश्चाताप स्वरूप उन्होंने कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को जगद्धात्री की पूजा शुरू की. धीरे-धीरे यह परंपरा पूरे बंगाल और पूर्वी भारत में फैल गई. आज यह त्योहार लाखों लोगों का आकर्षण है.

रामकृष्ण परमहंस थे बड़े उपासक
कहा जाता है कि रामकृष्ण परमहंस मां जगद्धात्री के बड़े उपासक थे. वे कहते थे कि मां की उपासना से मनुष्य के अंदर का भय, क्रोध, वासना और अहंकार खत्म होने लगता है. माता के पूजन के दौरान जलने वाली धूप 16 तरह के मसालों से बनती है. बाहर से कोई धूप नहीं खरीदी जाती. जगद्धात्री पूजा बंगाल की सांस्कृतिक धरोहर है. साथ ही बताया जाता है कि देवी जगद्धात्री की मूर्ति का काम तब तक पूरा नहीं होता, जब तक शारदीय नवरात्रि के दौरान दुर्गा विसर्जन ना कर दिया जाता है. दुर्गा प्रतिमा के विसर्जन के बाद ही मिट्टी लाई जाती है और फिर मूर्ति बनाई जाती है.
मैं धार्मिक विषय, ग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष उपाय पर 8 साल से भी अधिक समय से काम कर रहा हूं। वेद पुराण, वैदिक ज्योतिष, मेदनी ज्योतिष, राशिफल, टैरो और आर्थिक करियर राशिफल पर गहराई से अध्ययन किया है और अपने ज्ञान से प… और पढ़ें







