जैसे ही पितृपक्ष की शुरुआत होती है, करौली के ऐतिहासिक श्री राधा मदन मोहन जी मंदिर में पुश्तैनी कलाकार सांझी बनाने का काम शुरू कर देते हैं. पहले वे आरेख तैयार करते हैं और फिर उंगलियों की चुटकियों से रंग भरकर सांझी को सजाते हैं. यह परंपरा लगभग 200 साल से ज्यादा पुरानी मानी जाती है.
सांझी बनाने वाले पुश्तैनी कलाकार विजय भट्ट के अनुसार, इसकी शुरुआत स्वयं राधा जी ने भगवान कृष्ण की स्मृति में पितृपक्ष के दौरान की थी. तभी से ब्रज क्षेत्र और उससे जुड़े इलाकों में यह परंपरा जीवंत है.
मदन मोहन जी से जुड़ा इतिहास
करौली के वरिष्ठ इतिहासकार वेणुगोपाल शर्मा बताते हैं कि करौली में सांझी परंपरा की शुरुआत जन-जन के आराध्य श्री राधा मदन मोहन जी महाराज के करौली आगमन के साथ हुई थी. करीब 250 साल पहले जब उनका विग्रह यहां स्थापित हुआ, तभी से सांझी का सिलसिला आरंभ हुआ. पहले यह परंपरा घर-घर निभाई जाती थी, लेकिन अब इसका स्थायी ठिकाना केवल मदन मोहन जी मंदिर रह गया है.
इतिहासकार शर्मा के अनुसार, करौली की सांझी दरअसल ब्रजमंडल की रंगीन झलक है. इसमें भगवान कृष्ण की लीलाओं और 84 कोस की परिक्रमा में आने वाले प्रमुख स्थलों का चित्रण किया जाता है. पितृपक्ष के 16 दिनों में सांझी के माध्यम से ब्रज के वनों को उकेरा जाता है, जहां नन्हें कृष्ण गाय चराया करते थे.
सांझी में दिखते हैं ब्रज के पावन स्थल :
धर्मानगर करौली में पितृपक्ष के दौरान हर दिन बदलती सांझी में मधुवन, तालवन, कुमोदवन, बहुलावन, शांतनु कुंड, राधा कुंड, कुसुम सरोवर, बरसाना और नंदगांव जैसे पावन स्थल रंगों से संजोए जाते हैं. साथ ही राधा-कृष्ण की युगल झांकी और मथुरा-वृंदावन के ऐतिहासिक स्वरूप भी इसमें जीवंत कर दिए जाते हैं.
करौली की यह सांझी न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि ब्रज संस्कृति और कला के रंगों से रचा-बसा वह अध्याय है, जो हर साल पितृपक्ष में करौली को धर्मनगरी की विशिष्ट पहचान दिलाता है.