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Islam 4 shadi ki permission kyu : इस्लाम में बहुविवाह की इजाजत वक्त के साथ विवादित होती गई है. अक्सर इसकी असली वजह सामने नहीं आ पाती है. इस्लामिक स्कॉलर इसे नेक इरादे से उठाया गया कदम बताते हैं. लेकिन पूरा सच क्या है, आइये जानते हैं.

इस्लाम में बहुविवाह यानी मुस्लिम पुरुष को अधिकतम चार पत्नियां रखने की इजाजत है, मगर शर्त ये है कि वह सभी के साथ बराबरी और न्यायपूर्ण व्यवहार करे. अगर कोई पुरुष इस न्याय को कायम नहीं रख सकता, तो उसके लिए एक पत्नी ही काफी है. इस्लाम में न्याय और समानता को सर्वोच्च स्थान दिया गया है. इसलिए एक से अधिक शादी तभी जायज है जब हर पत्नी के हक पूरे किए जा सकें.

इस्लामिक स्कॉलर मोहम्मद उमेर खान बताते हैं कि इस्लाम ने चार शादियों की इजाजत इसलिए दी ताकि उन औरतों को समाज में सम्मान की जगह मिल सके जो विधवा, तलाकशुदा या बेसहारा हैं. इसका मकसद किसी की मदद करना है, न कि निजी सुख-सुविधा या शौक पूरा करना. इस्लाम सिखाता है कि निकाह इबादत है, न कि मौज-मस्ती का जरिया.

स्कॉलर बताते हैं कि इस्लामी कानून के अनुसार, किसी मुस्लिम पुरुष को दूसरी शादी करने से पहले अपनी पहली पत्नी से इजाजत लेना जरूरी है. इसी तरह तीसरी शादी के लिए दूसरी और चौथी शादी के लिए तीसरी पत्नी की रज़ामंदी लेना जरूरी है. अगर पत्नियां इजाज़त नहीं देतीं, तो इस्लाम कहता है कि पहली पत्नी को उसका पूरा हक़, खर्चा और सम्मान मिलना चाहिए. सिर्फ जरूरतमंद औरत को सहारा देने की नीयत से दूसरी शादी की जा सकती है, वह भी न्याय के साथ.

इस्लामिक स्कॉलर उमेर खान के मुताबिक, बहुविवाह की असल मकसद इंसाफ़ और रहमदिली पर आधारित है. उनका कहना है कि इस्लाम चार शादियों की इजाज़त इसलिए देता है ताकि समाज में जो औरतें बेसहारा हैं, उन्हें सहारा मिल सके. मगर अफसोस, कुछ लोग इस नियम का गलत इस्तेमाल करते हैं, जो इस्लाम की छवि को नुकसान पहुंचाता है.

स्लामिक स्कॉलर उमेर खान कहते हैं कि इस्लाम में किसी भी बीवी को सताना या परेशान करना सख़्त मना है. अगर कोई शख़्स पहली बीवी को दुखी रखकर दूसरी बीवी से अच्छा व्यवहार करता है, तो यह इस्लाम की शिक्षा के खिलाफ है. इस्लाम में इंसाफ का मतलब सिर्फ खर्चा उठाना नहीं, बल्कि प्यार, ध्यान और समान व्यवहार देना भी है. हर पत्नी को बराबर समय, स्नेह और सम्मान देना पति की जिम्मेदारी है.

इस्लाम में यह भी कहा गया है कि अगर किसी बीवी की इजाज़त न होने के बावजूद पति किसी ज़रूरतमंद या विधवा औरत से निकाह करता है, तो वह तभी जायज़ है जब वह अपनी पहली बीवी को उसका पूरा हक़ और आराम की जिंदगी दे रहा हो. ऐसी स्थिति में निकाह एक सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में माना जाता है, न कि निजी इच्छा के रूप में. इस्लाम में नीयत (इरादा) को बहुत अहमियत दी गई है. अगर नीयत नेक हो, तो निकाह सबाब का काम बन जाता है.

इस्लामिक स्कॉलर के अनुसार, इस्लाम में बहुविवाह एक सामाजिक सुधार और मानवीय पहल का हिस्सा है, लेकिन इसके साथ जुड़ी ज़िम्मेदारियां बहुत बड़ी हैं. जो व्यक्ति इन शर्तों को पूरा नहीं कर सकता, उसके लिए एक पत्नी ही बेहतर है. इस्लाम ने हमेशा इंसाफ़, बराबरी और रहम की सीख दी है. इसलिए बहुविवाह को समझदारी, नेक नीयत और इंसाफ़ के साथ निभाना ही असल इस्लामी रास्ता है.







