शादी-विवाह, पूजा, तिथि-त्योहार सभी मौकों पर मिठाई जरूर मिलती है. देश के सभी इलाकों की अपनी अलग-अलग मिठाइयां भी होती हैं. कुछ जगहों पर तो ऐसी मिठाई बनती हैं जो उस इलाके को भी फेमस कर देती हैं. ऐसी ही है कोडरमा की कलाकंद मिठाई. कोडरमा के झुमरी तिलैया के कलाकंद का इतिहास आजादी से पहले का है. अंग्रेजों के जमाने से ही यहां के केसरिया कलाकंद की अलग पहचान है. यहां का कलाकंद ब्रिटिश अधिकारियों की पहली पसंद थी.
झुमरी तिलैया का केसरिया कलाकंद और सादा कलाकंद दोनों ही बहुत फेमस हैं और इनकी डिमांड भी खूब है. झुमरी तिलैया में सबसे पहले लगभग 65-70 साल पहले भाटिया बंधुओं ने झंडा चौक पर कलाकंद बनाना शुरू किया था. पंजाब से झुमरी तिलैया में आकर बसे कर्ण सिंह भाटिया और उनके पुत्र हंसराज भाटिया और मुल्क राज भाटिया को तब यह पता नहीं था कि एक दिन कोडरमा का कलाकंद इतना प्रसिद्ध हो जाएगा. हालांकि, 1955-56 में खुला भाटिया मिष्ठान भंडार 80 के दशक में बंद हो गया और इससे जुड़े लोग अलग-अलग बिजनेस में चले गए.
भाटिया के दौर में ही कलाकंद की डिमांड को देखते हुए कुछ और लोगों ने कलाकंद बनाना शुरू किया था. अब यहां के कलाकंद शहर की पहचान बन चुके हैं. इन कलाकंदों की डिमांड सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी है. विदेशों में रहने वाले लोग यहां से कलाकंद खरीद कर ले जाते हैं.
यहां का कलाकंद खाने वालों का कहना है कि इस कलाकंद जैसी मिठास और स्वाद कहीं दूसरी जगह नहीं मिलता. यहां के कलाकंद में मिठास कम होती है और ये स्वादिष्ट होते हैं. मिठास कम होने से यह शरीर को भी नुकसान नहीं पहुंचाता.
कोडरमा का वातावरण बनाता है इसको खास
यहां के कलाकंद को कोडरमा का पानी, लोकल में मिलने वाला दूध और यहां का वातावरण स्वादिष्ट बनाता है. दरअसल, यहां के दूध, पानी और वातावरण से गर्म दूध को फाड़ने के बाद बने छेना में आसानी से क्रिस्टल बन जाते हैं जिससे कलाकंद दानेदार और स्वादिष्ट बनता है. इसके ऊपर केसर, पिस्ता और बादाम से गार्निशिंग की जाती है.
दूसरे जिले में कारीगरों को नहीं मिली सफलता
यहां के कारीगरों ने दूसरे जिलों में जाकर इसी तरह का कलाकंद बनाने का प्रयास किया लेकिन लेकिन वातावरण और पानी में अंतर की वजह से स्वादिष्ट और दानेदार कलाकंद नहीं बना पाए. वहां लोकल लेवल पर मिलने वाले दूध से ही बेहतरीन कलाकंद बनता है. पैकेट और डेयरी वाले दूध से दानेदार और स्वादिष्ट कलाकंद नहीं बन पाता.
मिलते हैं कुछ अन्य तरह के भी कलाकंद
आमतौर पर यहां केसरिया और सादा दो तरह के कलाकंद बनाए जाते हैं लेकिन कुछ दुकानों में पांच वैरायटी के कलाकंद भी बनाए जाते हैं. इनमें सफेद कलाकंद, केसरिया, गुड कलाकंद, शुगर फ्री और चॉकलेट कलाकंद हैं. केसरिया कलाकंद पीले रंग का होता है और इसी की सबसे ज्यादा बिक्री होती है. त्योहारों में इसकी मांग काफी बढ़ जाती है.
कीमत
एक किलो कलाकंद बनाने में 6 से 7 लीटर दूध लगता है. इनकी कीमत 450 से 550 रुपये प्रति किलो होती है. कलाकंद को 2 से 3 दिन के लिए स्टोर किया जा सकता है और ठंड के मौसम में यह एक सप्ताह तक भी ठीक रह जाता है. लोग यहां का कलाकंद खुद तो खाते ही हैं और अपने जानने वालों को दिवाली, जन्मदिन आदि अवसरों पर बांटते भी हैं. यहां तक कि जिन लोगों को कलाकंद भेंट किया जाता है वो इस मिठाई की और डिमांड कर बैठते हैं.
GI टैग दिए जाने पर हो रहा है काम
केसरिया कलाकंद की डिमांड और इसकी खासियत को देखते हुए काफी समय से इसे जीआई (ज्योग्राफिकल इंडिकेशन) टैग दिए जाने की बात भी कही जा रही है. जीआई टैगिंग के साथ कोडरमा का कलाकंद एक ब्रांड के रूप में घोषित किया जाएगा. इसके बाद देश-विदेश तक लोग इसके स्वाद का आसानी से मजा ले सकेंगे. जीआई टैगिंग के मापदंडों को पूरा करने के लिए केसरिया कलाकंद की खासियत और कोडरमा में ही बनने वाला कलाकंद इतना स्वादिष्ट क्यूं जैसे विषयों पर रिसर्च जारी है.
क्या है जीआई टैग
जिस प्रोडक्ट को जीआई टैग मिलता है वह प्रोडक्ट एक निश्चित क्षेत्र की पहचान बन जाता है. GI का मतलब होता भौगोलिक संकेत. जीआई टैग का सामान्य मतलब है कि कोई प्रोडक्ट कहां होता है या कहां बनाया जाता है. अपने क्षेत्र में विशेष खासियत रखने वाले प्रोडक्ट को ही जीआई टैग दिया जाता है.
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FIRST PUBLISHED : August 7, 2024, 19:26 IST
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