Journey of Tunde Kebabi: लखनऊ, नवाबों का शहर, अपनी नवाबी संस्कृति और लजीज व्यंजनों के लिए दुनियाभर में मशहूर है. इस शहर में एक ऐसा कबाब है जिसने न केवल भारतीयों बल्कि विदेशियों के मुंह में भी पानी ला दिया है, यह है टुंडे कबाब. सवा सौ साल पहले लखनऊ के चौक में शुरू हुआ यह सफर आज एक विश्व प्रसिद्ध ब्रांड बन चुका है. कहा जाता है कि लखनऊ आने वाला हर वो शख्स जो नॉनवेज खाने का शौकीन है, टुंडे कबाब की दुकान पर जरूर जाता है. इन कबाबों ने भी देश और दुनिया में हैदराबादी बिरयानी से कम शोहरत नहीं पायी है. आज हम आपको ले चलते हैं एक ऐसे सफर पर जहां हम जानेंगे कि कैसे एक हाथ वाले (एक हाथ वाले को टुंडा कहा जाता है) हाजी मुराद अली ने अपने हुनर से एक साधारण कबाब को दुनियाभर में मशहूर बना दिया.
लखनऊ और टुंडे कबाब का नाता
लखनऊ के इतिहास और यहां के खान-पान में गहराई से उतरने से पहले हम टुंडे कबाब की कहानी को समझ सकते हैं. आखिर कैसे एक साधारण कबाब लखनऊ की नवाबी संस्कृति का इतना अहम हिस्सा बन गया. लखनऊ हमेशा से ही खान-पान के लिए मशहूर रहा है. यहां के नवाब खाने-पीने के शौकीन थे और उन्होंने यहां की खान-पान की संस्कृति को काफी समृद्ध बनाया. टुंडे कबाब की शुरुआत गलावत कबाब से हुई थी. लेकिन हाजी मुराद अली के आने के बाद इस कबाब ने एक नई पहचान बनाई और टुंडे कबाब के नाम से मशहूर हुआ. हाजी मुराद अली एक हाथ वाले थे, लेकिन उनके हाथों में जादू था. उन्होंने गलावत कबाब को इतना मुलायम और स्वादिष्ट बनाया कि यह लोगों की जुबान पर चढ़ गया. एक कहानी के अनुसार, एक नवाब जिनके दांत नहीं रहे थे, उनके लिए हाजी मुराद अली ने यह कबाब बनाए थे. हालांकि यह कहानी पूरी तरह सही नहीं है, लेकिन यह टुंडे कबाब की लोकप्रियता को दर्शाती है.
क्या है कबाब की असली कहानी
रुथ डिसूजा प्रभु (Ruth Dsouza Prabhu) एलेफ बुक कंपनी से प्रकाशित अपनी नई किताब ‘इंडियाज मोस्ट लिजेंड्री रेस्टोरेंट्स’ (India’s Most Legendary Restaurants) में लिखती हैं कि टुंडे कबाब की असली कहानी क्या है? आइए जानते हैं. ज्यादातर लोग इसे गलावटी कबाब कहकर पुकारते हैं. लेकिन इसका सही नाम है गलावत. गलावत यानी नरम करने वाले पदार्थ (इस मामले में पपीता) से बना कबाब, जो उन्हें यह नाम देता है. यह समझने के लिए इतिहास में पीछे जाने की जरूरत है कि ऐसा क्यों है. लखनऊ के कबाब बहुत नाजुक होते हैं और पूरे भारत में अलग-अलग जगहों पर बनने वाले कबाबों से अलग होते हैं. समय के साथ शुजाउद्दौला के बेटे आसफुद्दौला ने अवध की राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित कर दी.
रुथ डिसूजा प्रभु की किताब ‘इंडियाज मोस्ट लिजेंड्री रेस्टोरेंट्स’
दिल्ली के पतन के साथ लखनऊ का उत्थान
उसके बाद यह शहर एक सांस्कृतिक स्वर्ग में बदल गया. अवध के नवाबों और लखनऊ शहर का उत्थान मुगलों और दिल्ली के पतन के साथ हुआ. इसलिए दिल्ली के कुछ बेहतरीन नर्तक, गायक, कवि और रसोइये जिन्होंने खुद को अचानक बिना किसी संरक्षक के पाया लखनऊ चले गए. इसने भारत के सांस्कृतिक परिदृश्य में शहर की जगह को और मजबूत कर दिया. इसीलिए 18वीं शताब्दी में अवध का खाना अपने चरम पर पहुंच गया था. उस दौर में विभिन्न प्रकार के कोरमा और कबाब बनाये जाते थे, जिनमें मसालों का अनूठा मिश्रण होता था और उनका स्वाद बेहद नाजुक था.
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तीन चीजें, जो बनाती हैं कबाब को खास
गलावत के कबाब लखनऊ की पाक विरासत के कई उदाहरणों में से एक है. बढ़िया कीमा (मूल रूप से भैंसा, लेकिन अब मटन भी) से बना कबाब अपनी अनूठी बनावट के लिए जाना जाता है. इसमें कच्चे पपीते का इस्तेमाल किया जाता है, जो इसे नरम बनाने में अहम भूमिका निभाता है. टुंडे कबाबी करीब सवा सौ सालों से से इस पाक विरासत का ध्वजवाहक रहा है. तीन चीजें हैं जो टुंडे को इतना खास बनाती हैं. पहली निश्चित तौर पर टुंडे मियां की पाक कला है, दूसरी है मसाला मिश्रण. जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे उन्होंने सबसे लोकप्रिय हकीमों में से एक हकीम सफदर नवाब की सलाह से बनाया था. तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण कि यह 19वीं सदी की शुरुआत में आम आदमी का भोजन था. कई लोग टुंडे के कबाब को सस्ते स्ट्रीट फूड के तौर पर खारिज करते हैं. उनकी नजर में इसमें लखनऊ के कुलीन परिवारों के घरों में तैयार किए जाने वाले कबाबों की परिष्कृतता का अभाव है.
मुराद अली ने 1905 में चौक के एक कोने में अपना ट्रेडमार्क गलावत कबाब बनाना शुरू किया था.
वे लोग जिन्होंने बनाई विरासत
अब बात करते हैं एक हाथ वाले कबाबची की. कबाब बनाने में माहिर हाजी मुराद अली काम की तलाश में भोपाल से लखनऊ आये थे. एक दिन वह पतंग उड़ाते समय छत से गिर गए. उनका हाथ बुरी तरह घायल हो गया और उचित चिकित्सा देखभाल के अभाव में उसे काटने की नौबत आ गई. एक दिन उनकी मुलाकात एक साधू से हुई मुराद अली को दुआ दी कि और कहा कि जब तक संभव हो दूसरों की सेवा करो. एक हाथ खोने के बाद मुराद अली ने 1905 में चौक के एक कोने में अपना ट्रेडमार्क गलावत कबाब बनाना शुरू किया. कबाब ने अपने स्वाद की वजह से लोकप्रियता हासिल की.
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मुराद अली के बाद रईस ने संभाला कारोबार
हाजी मुराद अली के निधन के बाद, उनके भतीजे, हाजी रईस अहमद ने कारोबार संभाला, क्योंकि उनके कोई बेटा नहीं था. रईस अहमद ने न केवल यह सुनिश्चित किया कि कबाब की क्वालिटी बनी रहे, उन्होंने बढ़ती लागत के बावजूद कीमतों में वृद्धि नहीं होने दी. यह उनके समय के दौरान ही था कि टुंडे कबाब ने अपने बेहद लोकप्रिय परांठे बनाना शुरू किया. आम तौर पर इसे मुगलई पराठे के रूप में जाना जाता है. पराठा और कबाब अपने स्वाद के साथ एक संपूर्ण भोजन बनता है, जिसे आम आदमी भी आसानी से खरीद कर खा सकता था. शौकीन लोग इसके लिए चौक तक जाने को तैयार रहते थे.
टुंडे कबाबी के अमीनाबाद वाले आउटलेट में पहली बार मटन के साथ गलावत के कबाब बनाने शुरू हुए.
बनने लगे मटन कबाब तो आने लगे ज्यादा लोग
क्योंकि कबाब भैंसे के मांस से बनाया जाता था, इसलिए इसने उन लोगों के एक बड़े तबके को दूर रखा जो इसे लेकर असहज थे. लेकिन यह तब बदल गया जब हाजी रईस अहमद के बेटे मोहम्मद उस्मान ने 1995 में अमीनाबाद में अपनी दुकान खोली. पहली बार, उन्होंने मटन के साथ गलावत के कबाब बनाना शुरू किया. इस फैसले से रेस्तरां में अधिक लोग आने लगे. हालांकि टुंडे के कबाब के मूल पारखी अभी भी चौक आते थे. रईस अहमद के 2022 में निधन के बाद चौक स्थित आउटलेट की देखभाल रईस के छोटे बेटे और उस्मान के छोटे भाई मोहम्मद रिज़वान द्वारा की जाती है. यह मुख्य रूप से एक ऐसी जगह बनी हुई है जहां स्थानीय लोग कबाब-पराठे खाने ही आते हैं.
FIRST PUBLISHED : July 30, 2024, 15:46 IST
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