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दुकान संचालक प्रदीप कोठाने बताते हैं कि उनके दादा सालगराम ने करीब 100 साल पहले सबसे पहले खरगोन में जलेबी बनाना शुरू किया था. हैरानी की बात ये है कि दादा को दिखाई नहीं देता था, फिर भी वे जलेबी बनाते थे. उनकी पत्…और पढ़ें
इस दुकान की कहानी भी स्वाद जितनी ही लाजवाब है. दुकान संचालक प्रदीप कोठाने बताते हैं कि उनके दादा सालगराम ने करीब 100 साल पहले सबसे पहले खरगोन में जलेबी बनाना शुरू किया था. हैरानी की बात ये है कि दादा को दिखाई नहीं देता था, फिर भी वे जलेबी बनाते थे. उनकी पत्नी को सुनाई नहीं देता था, लेकिन वो दुकान पर जलेबी बेचती थीं. दोनों की मेहनत और जिद ने इस स्वाद को जन्म दिया, जो आज भी लोगों की जुबां पर छाया हुआ है.
करीब 56 साल तक शहर के रामपेठ मोहल्ले में जलेबी की दुकान चलने के बाद 1987 में इसमें कचौरी और समोसे भी शामिल किए गए. लेकिन बेचने का तरीका एकदम अलग था. जहां शहर की बाकी दुकानों में समोसे-कचौरी नग से बिकते थे, वहीं सालगराम जलेबी वाले ने तौल से देना शुरू किया. यही स्टाइल लोगों को खूब भाया और दुकान की पहचान बन गया. कुछ साल बाद इसे बंद कर दिया लेकिन, बाद में 2001 में दुकान वल्लभ मार्केट में शिफ्ट होने पर फिर यही पेटर्न अपनाया गया.
सस्ता और बेचने का तरीका बनी पहचान
आज यहां रोजाना 35 से 40 किलो से ज्यादा समोसे-कचौरी बिकते हैं. एक किलो नाश्ते की कीमत 200 रुपये है. एक किलो में 40 से ज्यादा कचौरी-समोसे आ जाते हैं, यानी ग्राहक को केवल 5 रुपए में गरमा-गरम नाश्ता मिल जाता है. यही वजह है कि सुबह 8:30 बजे से लेकर रात 9 बजे तक लोगों की लाइन कभी कम नहीं होती.
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