नैनीताल: उत्तराखंड के नैनीताल में इन दिनों एक नई मानसिक समस्या तेजी से पैर पसार रही है. नोमोफोबिया (Nomophobia) यानी मोबाइल फोन से दूरी का डर. शहर के बीडी पांडे जिला अस्पताल की मनोचिकित्सक डॉ. गरीमा कांडपाल बताती हैं कि रोजाना कई ऐसे मरीज अस्पताल पहुंच रहे हैं जो फोन से कुछ देर दूर रहने पर बेचैनी, घबराहट, तनाव और चिड़चिड़ापन महसूस करते हैं.
नोमोफोबिया शब्द “नो-मोबाइल-फोबिया” से बना है, जिसका अर्थ है मोबाइल फोन के बिना रहने का भय. यह समस्या अब स्कूल-कॉलेज के छात्रों, नौकरीपेशा युवाओं और गृहिणियों में समान रूप से देखी जा रही है. कोविड-19 के बाद से लोगों का स्क्रीन टाइम कई गुना बढ़ा है, जिससे नींद न आना, ध्यान केंद्रित न कर पाना और सामाजिक रूप से अलग-थलग पड़ने जैसी दिक्कतें बढ़ रही हैं.
मानसिक और शारीरिक परेशानी
डॉ. कांडपाल के अनुसार, सामान्य तौर पर एक व्यक्ति दिन में औसतन 7 घंटे मोबाइल पर बिताता है. यही आदत अब मानसिक निर्भरता में बदल रही है. कई लोग मोबाइल की अनुपस्थिति में हाइपर या डिप्रेसिव हो जाते हैं. कुछ बच्चों में तो यह आदत इतनी गहरी हो गई है कि फोन छिनने पर वे गुस्से या हिंसक व्यवहार दिखाने लगते हैं.
मानसिक और शारीरिक दोनों पर बुरा प्रभाव
मनोचिकित्सक बताते हैं कि मोबाइल की लत केवल मानसिक नहीं बल्कि शारीरिक दुष्प्रभाव भी छोड़ रही है. इससे सिरदर्द, पेट दर्द, आंखों में जलन, नींद की कमी और दिल की धड़कन बढ़ने जैसी समस्याएं आम होती जा रही हैं. बच्चे अब खेलकूद और आउटडोर गतिविधियों से दूर होकर केवल ऑनलाइन गेम और सोशल मीडिया में उलझे रहते हैं, जिससे उनका सामाजिक और शारीरिक विकास प्रभावित हो रहा है.
कैसे बचें नोमोफोबिया से
डॉ. कांडपाल सलाह देती हैं कि मोबाइल का उपयोग जरूरत पड़ने पर ही करें, बेवजह स्क्रॉलिंग से बचें, सोने से पहले फोन का इस्तेमाल न करें. फोन का नोटिफिकेशन बंद रखें, ताकि दिमाग को लगातार अलर्ट न मिले. रोज कुछ समय बिना मोबाइल के व्यतीत करें, जैसे वॉक पर जाएं या परिवार से बात करें. बच्चों को मोबाइल की बजाय आउटडोर गेम्स की ओर प्रोत्साहित करें. उन्होंने बताया कि नोमोफोबिया अभी गंभीर बीमारी की श्रेणी में नहीं आता, लेकिन इसके बढ़ते केस समाज के लिए एक चेतावनी संकेत हैं कि डिजिटल निर्भरता अब मानसिक स्वास्थ्य के लिए वास्तविक खतरा बन चुकी है.
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