इटावा: कालिका देवी के मुरीद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू समेत कई नामचीन लोग रहे हैं. जवाहरलाल नेहरू एक बार नहीं बल्कि कई बार कालिका देवी मंदिर में पूजा अर्चना के लिए आए हैं. यह ऐतिहासिक मंदिर उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के लखना कस्बे में स्थित है. जहां वैसे तो श्रद्धालु पूजा अर्चना करने के लिए नियमित रूप से आते रहते हैं, लेकिन नवरात्रि के दौरान इस मंदिर का महत्व और भी बढ़ जाता है.
हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक
इस मंदिर को हिंदू-मुस्लिम एकता का बड़ा प्रतीक माना जाता है, क्योंकि मंदिर परिसर में ही एक मजार और देवी का आसन स्थित है. ऐसा कहा जाता है कि जब तक मजार और देवी के आसन पर श्रद्धा-भाव से पूजा और प्रसाद नहीं चढ़ाया जाता, तब तक किसी भी श्रद्धालु की मनोकामना पूरी नहीं होती. देश के कोने-कोने से श्रद्धालु यहां आकर पूजा अर्चना करते हैं.
सांप्रदायिक सद्भाव का उदाहरण
चंबल की घनघोर घाटियों को आम तौर पर डकैतों की शरणस्थली माना जाता है, लेकिन यह घाटी सांप्रदायिक सद्भाव का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करती है जिसकी दूसरी मिसाल देश में कहीं नहीं मिलती. मान्यता है कि मां कालिका देवी तभी अपने भक्तों की सुनती हैं जब सैयद बाबा की दरगाह का भी पूजन-अर्चन किया जाए. मंदिर में स्थापित सैयद बाबा की दरगाह हिंदू-मुस्लिम एकता का जीता-जागता उदाहरण है. सबसे अद्भुत बात यह है कि इस मंदिर का पुजारी शुरू से ही एक दलित परिवार से होता आया है.
मंदिर पर मन्नतें और शक्ति पीठों का महत्व
देवी भक्त मंदिर में घंटा और झंडा चढ़ाकर मन्नत मांगते हैं. पौराणिक शक्ति पीठों की भांति लखना वाली कालिका मैया भी दूर-दूर तक आस्था का केंद्र बनी हुई हैं. इस मंदिर की विशेषता यह है कि आदिकाल से अब तक इसका पुजारी केवल दलित परिवार का ही रहा है. मंदिर परिसर में स्थित सैयद बाबा की दरगाह भी हिंदू-मुस्लिम दोनों के लिए आस्था का केंद्र है. यह सामाजिक सौहार्द का अद्वितीय उदाहरण है.
जसवंत राव और कालिका देवी की कथा
बताया जाता है कि लखना स्टेट के राजा राव जसवंत राव, जो ब्राह्मण कुल में जन्मे थे, कालिका देवी के उपासक थे. एक दिन जब वह पूजा के लिए यमुना नदी पार कर रहे थे, तेज बहाव के कारण वह नदी पार नहीं कर सके और इस कारण उन्हें देवी के दर्शन नहीं हो पाए. इससे व्यथित होकर उन्होंने अन्न-जल का त्याग कर दिया.
देवी का स्वप्न दर्शन
रात में देवी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा कि वह निराश न हों, क्योंकि वह स्वयं उनके राजप्रासाद में विराजमान होंगी. देवी के इस स्वप्न के बाद राजा ने इंतजार करना शुरू किया. कुछ समय बाद उनके कारिंदों ने सूचना दी कि राजप्रासाद के पास स्थित बेरी शाह के बाग में देवी प्रकट हुई हैं. राजा जसवंत राव ने वहाँ जाकर देवी की प्रतिमाओं की स्थापना करवाई और भव्य मंदिर का निर्माण कराया.
दलित पुजारी की परंपरा
मंदिर में दलित पुजारी की परंपरा से समाज के उच्च वर्ग को भी कोई गुरेज नहीं है. मंदिर से सटी मजार गंगा-जमुनी तहज़ीब का प्रतीक है. इस मंदिर का निर्माण 1820 में राजा जसवंत राव ने कराया था. उन्होंने मुस्लिम समुदाय की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हुए मंदिर के पास एक मजार की स्थापना कराई.
दलित पुजारी की ऐतिहासिक भूमिका
मंदिर निर्माण के समय राजा जसवंत राव ने महसूस किया कि दलितों को समाज में सम्मान नहीं मिलता, इसलिए उन्होंने घोषणा की कि मंदिर का पुजारी एक दलित परिवार से ही होगा. तब से लेकर आज तक एक ही दलित परिवार की पाँचवीं पीढ़ी इस मंदिर की पूजा-अर्चना कर रही है.
मंदिर की ख्याति
लखना के पूर्व नगर पंचायत अध्यक्ष अशोक सिंह ने Bharat.one से बात करते हुए बताया कि इस मंदिर में देश के विभिन्न प्रांतों के लोग दर्शन के लिए आते हैं. मंदिर में एक साथ जहाँ घंटियाँ बजती हैं, वहीं मजार पर कुरान की आयतें भी पढ़ी जाती हैं. यह गंगा-जमुनी संस्कृति की अद्भुत मिसाल है.
सामाजिक परंपराएँ
मंदिर पर बच्चों का मुंडन और विवाहोपरांत नई बहू के दर्शन की परंपरा भी है. इस अवसर पर बधाई गीत गाने की परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी कालिका देवी के भक्त रहे हैं. डाकुओं के प्रभाव वाले इस इलाके में, पुलिस की कड़ी तैनाती के बावजूद, डाकू यहाँ आकर घंटा और झंडा चढ़ाकर अपनी भक्ति व्यक्त करते थे
FIRST PUBLISHED : October 14, 2024, 14:32 IST
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