Home Dharma Shukracharya one eyed story। शुक्राचार्य की एक आंख क्यों फूटी

Shukracharya one eyed story। शुक्राचार्य की एक आंख क्यों फूटी

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Shukracharya 1 Eyed Guru : भारतीय पौराणिक कथाओं में कई ऐसे चरित्र मिलते हैं जिनकी कहानियों में गहरा ज्ञान, रहस्य और शिक्षा छिपी होती है. इन्हीं में से एक हैं असुरों के गुरु शुक्राचार्य. वे केवल राक्षसों के गुरु नहीं थे, बल्कि ज्ञान, नीति और अद्भुत विद्या के धनी माने जाते हैं. कहा जाता है कि उनके पास मृत व्यक्ति को जीवित करने की विद्या थी, जिसे “संजीवनी विद्या” कहा गया है. इस कारण देवता भी उनका सम्मान करते थे. शुक्राचार्य का जन्म महर्षि भृगु के घर हुआ था और उनका बाल्यकाल का नाम उशना था. वे अत्यंत बुद्धिमान, गंभीर और तपस्वी स्वभाव के थे. वे ज्योतिष और काव्य शास्त्र के भी बड़े ज्ञाता थे, इसलिए उन्हें कवि भी कहा गया. किंतु उनके जीवन की सबसे चर्चित बात यह रही कि उनकी एक आंख फूट गई थी. यही कारण है कि कई ग्रंथों में उन्हें “एकाक्ष” कहा गया है. शुक्राचार्य की एक आंख कैसे फूटी, इसकी कहानी भगवान विष्णु के वामन अवतार से जुड़ी है. यह कथा केवल एक प्रसंग नहीं है, बल्कि इसमें निहित संदेश बताता है कि देवता और असुर दोनों ही अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं. चलिए जानते हैं इस रोचक कथा को विस्तार से.

शुक्राचार्य की आंख फूटने की कहानी
एक बार असुरों के राजा महाबली, जिन्हें बलि भी कहा जाता है, एक बड़ा यज्ञ कर रहे थे. इस यज्ञ में शुक्राचार्य मुख्य आचार्य थे. बलि अपने कर्मों और दानशीलता के लिए प्रसिद्ध थे. वे हर किसी को याचना करने पर दान देते थे. इसी दौरान भगवान विष्णु ने असुरों की शक्ति को सीमित करने के लिए वामन अवतार धारण किया. उन्होंने एक छोटे ब्राह्मण बालक का रूप लिया और यज्ञ स्थल पर पहुंचे. वामन ने राजा बलि से कहा, “राजन, मुझे केवल तीन पग भूमि चाहिए.”

यह सुनकर शुक्राचार्य को संदेह हुआ. उन्होंने तुरंत पहचान लिया कि यह साधारण ब्राह्मण नहीं, स्वयं भगवान विष्णु हैं. उन्होंने बलि को चेताया, “राजन, यह कोई सामान्य याचक नहीं है. यदि तुमने इसे तीन पग भूमि दे दी, तो तुम्हारे पास कुछ नहीं बचेगा.”

बलि ने मुस्कुराते हुए कहा, “गुरुदेव, जब कोई ब्राह्मण कुछ मांगता है, तो मैं मना नहीं कर सकता. दान मेरा धर्म है.”
जब बलि दान की शपथ लेने वाले थे, तो शुक्राचार्य ने सूक्ष्म रूप धारण किया और कमंडल (दान का पात्र) की नली में जाकर बैठ गए ताकि जल बह न सके और दान अधूरा रह जाए.

भगवान वामन यह समझ गए. उन्होंने एक छोटा तिनका उठाया और पात्र के मुंह में डाल दिया. वह तिनका शुक्राचार्य की आंख में जा चुभा. दर्द से कराहते हुए वे बाहर आ गए, लेकिन उसी क्षण उनकी एक आंख फूट गई. इसके बाद से वे “एकाक्ष” कहलाए.

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वामन अवतार का परिणाम और बलि का दान
जैसे ही जल बाहर आया, बलि ने तीन पग भूमि का दान दे दिया. भगवान वामन ने अपने रूप का विस्तार किया. पहले कदम में उन्होंने धरती नापी, दूसरे में आकाश, और तीसरे कदम के लिए पूछा कि अब कहां रखूं? तब बलि ने विनम्र होकर कहा, “प्रभु, तीसरा कदम आप मेरे सिर पर रख दीजिए.”

भगवान ने प्रसन्न होकर बलि को पाताल लोक का राजा बना दिया. इस प्रकार विष्णु ने असुरों की शक्ति सीमित की, परंतु बलि को कभी न भुलाने वाला सम्मान भी दिया.

शुक्राचार्य को अपनी आंख खोने का दुख तो रहा, पर उन्होंने इसे अपने कर्म का परिणाम माना और अपने तप से और अधिक बलवान बने.

शिवजी के पेट में तपस्या और “शुक्राचार्य” नाम की उत्पत्ति
एक अन्य कथा के अनुसार, जब असुरों ने संजीवनी विद्या का दुरुपयोग करना शुरू किया, तो भगवान शिव क्रोधित हो गए. उन्होंने शुक्राचार्य को निगल लिया. जब वे शिव के पेट में पहुंचे, तो वहां से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं मिला.

उन्होंने पेट के भीतर ही कठोर तप किया. उनकी भक्ति देखकर शिव प्रसन्न हुए और उन्हें अपने शरीर से वीर्य के रूप में बाहर निकाला. तभी से वे “शुक्राचार्य” कहलाए. शिव के शरीर से उत्पन्न होने के कारण उन्हें शिव का पुत्र भी कहा गया.

लोक संस्कृति में शुक्राचार्य की छवि
शुक्राचार्य को आज भी विद्या, नीति और संयम के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है. उनकी एक आंख फूटने की घटना यह सिखाती है कि बुद्धिमान व्यक्ति भी यदि छल या रोकने के प्रयास में धर्म के मार्ग से हट जाए, तो परिणाम दुखद हो सकता है.

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