Why Balarama Didn’t Fight: महाभारत एक ऐसा महायुद्ध था जिसने सिर्फ धरती को ही नहीं, बल्कि हर उस इंसान को अंदर से हिला दिया था, जो उस दौर का हिस्सा था. इस युद्ध में जब-जब कोई बड़ा मोड़ आया, हर किसी की नजर ऐसी चीज़ों पर भी गई, जो कई बार समझ से बाहर लगती थीं. पांडवों को कृष्ण का साथ मिला, कौरवों को अपनी विशाल सेना का भरोसा था और हर कोई अपने-अपने तरीके से जीत के सपने देख रहा था. लेकिन इसी बीच एक ऐसा सवाल हमेशा लोगों के मन में घूमता रहा-कृष्ण के बड़े भाई बलराम आखिर युद्ध से दूर क्यों रहे? यह बात हमेशा चर्चा में रही है कि जब बाकी सभी योद्धा अपने धर्म और कर्तव्य के हिसाब से युद्ध में उतर गए, तब बलराम जैसे शक्तिशाली और गदा कला के गुरु ने खुद को इस पूरे संघर्ष से क्यों अलग कर लिया. बलराम सिर्फ कृष्ण के भाई ही नहीं थे, बल्कि दोनों पक्षों के कई योद्धाओं के शिक्षक भी थे. दुर्योधन और भीम दोनों ने उनसे गदा की ट्रेनिंग ली थी. यानी अगर बलराम युद्ध में उतरते, तो पलड़ा किसी भी ओर भारी कर सकते थे. फिर ऐसा क्या था जिसने उन्हें इस महायुद्ध से दूर कर दिया? कई लोग इसे भावनाओं से जोड़ते हैं, कुछ लोग इसे उनके स्वभाव से और कुछ इसे उनकी आध्यात्मिक सोच का हिस्सा मानते हैं. आज हम इसी रहस्य को बेहद आसान और स्पष्ट भाषा में समझने की कोशिश करेंगे, ताकि पता चल सके कि महाभारत जैसे विशाल युद्ध में भी बलराम ने क्यों तटस्थ रहना चुना.

बलराम और महाभारत कहानी
महाभारत युद्ध में क्यों नहीं शामिल हुए बलराम?
1. दोनों पक्षों से गहरा जुड़ाव
सबसे बड़ा कारण यह था कि बलराम कौरवों और पांडवों दोनों से बेहद जुड़ाव रखते थे. दुर्योधन और भीम दोनों ने उनसे गदा युद्ध की शिक्षा ली थी. दुर्योधन उनके सबसे पसंदीदा शिष्यों में से एक था, वहीं भीम को भी वे बहुत सम्मान देते थे. ऐसे में बलराम के लिए किसी एक पक्ष का साथ देना आसान नहीं था. अगर वे पांडवों के साथ खड़े होते, तो दुर्योधन को चोट पहुंचती और अगर कौरवों की मदद करते, तो भीम को गलत लगता. वे दोनों को अपने बच्चों जैसा मानते थे और उनमें से किसी एक को चोट खाते हुए देखने की कल्पना भी उन्हें असहनीय लगती थी. यही वजह थी कि उन्होंने साफ कह दिया -“मैं किसी पक्ष का झंडा नहीं पकड़ूंगा.”
2. बलराम का शांत स्वभाव और युद्ध से दूरी
बलराम मूल रूप से बेहद शांत स्वभाव वाले थे. वे शक्ति के देवता माने जाते हैं, लेकिन फिर भी हिंसा उन्हें पसंद नहीं थी. उनका मानना था कि युद्ध कभी भी सही समाधान नहीं होता. वे यह भी समझ चुके थे कि यह युद्ध निजी बदले और हठ का नतीजा बन चुका है, जिसमें किसी की भी जीत असल में जीत नहीं होगी. इसलिए उन्होंने यह रास्ता चुना कि वे हिंसा से पूरी तरह दूर रहेंगे. उन्हें साफ महसूस हो गया था कि चाहे कोई भी जीते, नुकसान तो दोनों ही तरफ होना तय है.
3. युद्ध शुरू होने से पहले तीर्थयात्रा पर निकल जाना
जब यह तय हो गया कि युद्ध टल नहीं सकता, तब बलराम ने खुद को पूरी तरह इस माहौल से दूर करने का फैसला किया. उन्होंने कहा कि वे भाई-भाइयों को लड़ते हुए नहीं देख सकते, इसलिए वे तीर्थयात्रा पर जा रहे हैं. यह कोई बहाना नहीं था, बल्कि एक तरह से वो रास्ता था जिससे वे किसी भी तरह के पक्षपात से बच सकें. जिस समय मैदान पर दोनों ओर हथियार चमक रहे थे, उस समय बलराम अलग-अलग तीर्थों की यात्रा कर रहे थे ताकि उनका मन इस विनाश से दूर रहे.
बलराम और महाभारत कहानी
4. कुछ कथाओं में वर्णन-कृष्ण से मतभेद
कुछ कथाओं में यह भी कहा गया है कि एक समय ऐसा आया था जब बलराम कृष्ण की एक बात से सहमत नहीं थे.
इससे उनके मन में थोड़ी उलझन और दूरी आ गई थी. यही कारण था कि वे धर्म, नीति और परिवार के बीच उलझे हुए महसूस कर रहे थे और किसी भी विवाद में सीधा हिस्सा नहीं लेना चाहते थे. हालांकि यह मतभेद बड़ा नहीं था, लेकिन उनकी मानसिक स्थिति पर इसका असर हुआ.
5. न्यायप्रिय स्वभाव और तटस्थ रहने की इच्छा
बलराम हमेशा से सीधी और साफ सोच वाले रहे हैं. वे सिर्फ वही करते थे जिसे वे सही मानते थे. उनके अंदर किसी के लिए पक्षपात की भावना नहीं थी और इसी वजह से वे तय नहीं कर पा रहे थे कि असल में सही कौन है. उन्हें दोनों पक्षों में कुछ चीज़ें सही भी लगती थीं और कुछ गलत भी. इसलिए उन्होंने कहा-“जब मैं सही-गलत को स्पष्ट नहीं समझ पा रहा, तो मैं किसी के साथ खड़ा क्यों होऊं?” यही सोच उन्हें तटस्थ रहने की तरफ ले गई.