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Premanand Maharaj : हर माता-पिता की इच्छा होती है कि उनके घर में संतान हो, लेकिन कुछ माता-पिता की चाहत बेटी से ज्यादा बेटे को लेकर होती है. जिसके लिए वे कई जतन करते हैं. इसको लेकर प्रेमानंद महाराज ने एक संदेश दिया है जो हर माता-पिता को जानना चाहिए.
Premanand Maharaj : हमारे समाज में कई बातें समय के साथ बदल गई हैं, लेकिन कुछ सोच अभी भी वही है जैसी दशकों पहले थी. खासकर बेटी और बेटे को लेकर बनाई गई धारणाएं आज भी कई घरों में गहरी जड़ें जमाए बैठी हैं. लोग पढ़-लिख गए, रोजगार और जीवनशैली में बड़े बदलाव हुए, पर इस बात को लेकर नजरिया बदलने में अभी भी समय लग रहा है कि परिवार को पूरा मानने के लिए बेटा होना जरूरी है या नहीं. इसी सोच की वजह से कई महिलाएं और परिवार मानसिक दबाव में जीते हैं. कहीं रिश्तेदार ताने देते हैं, कहीं परिवार के लोग सवाल करते हैं और कई बार महिलाएं खुद इस बात को बोझ समझ लेती हैं कि अगर बेटा नहीं हुआ तो घर का नाम, सम्मान या भविष्य अधूरा रह जाएगा. ऐसी ही एक सोच को लेकर एक महिला हाल ही में वृंदावन के जाने-माने संत प्रेमानंद महाराज के पास पहुंची. वह अपनी समस्या नहीं, बल्कि वह मान्यता लेकर आई थी जो कई घरों में आज भी चली आ रही है “मेरी दो बेटियां हैं… अब बेटा चाहिए.” उसके इस सवाल में सिर्फ उसकी इच्छा नहीं, बल्कि उस मानसिकता की झलक थी जो बेटों को खास समझती है और बेटियों को किसी तरह कम आंकती है. लेकिन इस महिला को ऐसा जवाब मिला जिसने न सिर्फ उसकी सोच को झकझोर दिया, बल्कि उन सभी लोगों को सीख दी जो आज भी बेटे को ही परिवार का आधार मानते हैं.
इस पूरे प्रसंग में सबसे खास बात यह है कि महाराज ने न सिर्फ जवाब दिया, बल्कि उन संवेदनाओं को भी आवाज दी जो बेटियों के अस्तित्व और सम्मान से जुड़ी हैं. आइए समझते हैं कि यह पूरा मामला क्या था और उनके जवाब में ऐसी कौन-सी बात थी जो हर परिवार को सुननी चाहिए.
दो बेटियां हैं, अब एक बेटा चाहिए, महिला की बात
एक वीडियो में देखा गया कि एक महिला प्रेमानंद महाराज के सामने आती है और सीधे कह देती है, “महाराज, मेरी दो बेटियां हैं… अब मैं एक बेटे की इच्छा रखती हूं.” उसकी आवाज में उम्मीद भी थी और हल्की चिंता भी, जैसे अगर बेटा नहीं हुआ तो कुछ अधूरा रह जाएगा.
यह सुनते ही महाराज ने मुस्कुराते हुए पूछा “क्यों? बेटा क्यों जरूरी है? ऐसा क्या है बेटे में?”
यह सवाल सीधा लग सकता है, पर असल में वह समाज की उस सोच पर चोट था जिसे हम पीढ़ियों से ढोते आ रहे हैं.
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