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पितृपक्ष में नहीं कर पाएं हैं पिंडदान? तो इस दिन 4 जगहों पर जरूर जलाएं दीपक, पूर्वजों की बरसने लगेगी कृपा!

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Sarva Pitru Amavasya 2025: हिंदू धर्म में पितृपक्ष का बड़ा महत्व है. हिंदू पंचांग के अनुसार, पितृपक्ष भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि से प्रारंभ होता है और आश्विन मास की अमावस्या तिथि पर खत्म हो जाता है. इन 15 दिनों के दौरान लोग पितरों को याद कर उनके निमित्त तर्पण, श्राद्ध और पिंडदान करते हैं.

कहा जाता है कि पितृपक्ष के दौरान पितृ धरती पर आते हैं. पितृ पक्ष के दौरान तर्पण और पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष की प्राप्ति होती है. यदि कोई व्यक्ति किसी कारणवश यह कर्म न कर पाए, तो कुछ विशेष दीपक उपायों के माध्यम से भी पितरों का आशीर्वाद पाया जा सकता है.

दीपक जलाने के लिए महत्वपूर्ण तिथि
उज्जैन के आचार्य आनंद भारद्वाज के अनुसार, आश्विन माह की अमावस्या तिथि इस बार 20 सितंबर की रात से शुरू होकर 21 सितंबर की रात तक रहेगी. ऐसे में उदया तिथि के अनुसार सर्वपितृ अमावस्या से जुड़ी पूजा और श्राद्ध 21 सितंबर 2025 को किए जाएंगे. यह समय पितरों की याद में किए जाने वाले श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान के लिए बेहद शुभ माना जाता है.

दीपक जलाने के चार महत्वपूर्ण स्थान

1. पहला दीपक – घर के मुख्य द्वार पर: माता लक्ष्मी के स्वागत के लिए घी या सरसों के तेल का दीपक जलाएं. साथ में एक लोटा जल रखें और दरवाजा खुला रखें. इससे नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है और लक्ष्मी जी का आगमन होता है.
2. दूसरा दीपक – दक्षिण दिशा में, घर के बाहर: यह दीपक सरसों के तेल का होना चाहिए. पौराणिक मान्यता है कि अमावस्या की शाम पितर धरती से अपने लोक की ओर लौटते हैं. उन्हें मार्ग में प्रकाश मिले तो वे प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं.
3. तीसरा दीपक – पितरों की तस्वीर या स्मृति स्थान पर: घर में जहां आपने पितरों की तस्वीर लगाई हो, वहां दीपक जलाएं. यह श्रद्धा का प्रतीक है और आत्मिक संबंध को मजबूत करता है.
4. चौथा दीपक – पीपल के वृक्ष के नीचे: इस दिन पीपल की पूजा विशेष फलदायी होती है. पीपल के नीचे देवताओं के लिए तिल के तेल और पितरों के लिए सरसों के तेल का दीप जलाएं.

दीपक जलाने के लाभ
इन सरल लेकिन श्रद्धा से भरे उपायों से पितृदोष शांत होता है और जीवन में सुख, समृद्धि और मानसिक शांति का संचार होता है. दीप से न सिर्फ अंधकार दूर होता है, बल्कि आत्मा भी आलोकित होती है.

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