नवरात्र और हिंदू धर्म से संबंधित व्रत के दिनों में साबुदाने और कुट्टू के अलावा जिस फल को कई तरीकों से इस्तेमाल करते हैं, वो सिंघाड़ा है. उसकी कहानी भी रोचक है. हालांकि ये बहुत प्राचीन समय से व्रत का आहार रहा है. कई बार ये भ्रम भी होता है कि ये फल है या सब्जी. इसे फल के रूप में भी खाया जाता है तो सब्जी के रूप में भी और अन्न के तौर पर इसे सुखाकर जब पीसते हैं तो इसकी रोटी भी बन जाती है. हालांकि सिंघाड़े की कहानी कम विचित्र नहीं है. खासकर इसके पैदावार की.
वैसे सिंघाड़ा को मूल रूप से यूरोप और एशिया का पौधा माना जाता है. यह जलाशयों, तालाबों और धीमी गति से बहने वाली नदियों में कीचड़ में पैदा होता है. इसकी जड़ें कीचड़ में होती हैं. पानी के अंदर ही उगता है. इस तोड़ने वाले लोगों में इसके कांटे भी लगते रहते हैं. दरअसल तिकोने आकार वाले इस फल में दो सींगें भी होती हैं. जो शरीर में लग गईं तो खून भी निकाल सकता है. पुरातात्विक साक्ष्यों के अनुसार, इसका उपयोग 5000 साल से भी अधिक पुराना है.
फल, सब्जी और अन्न तीनों तरह से इस्तेमाल
लेकिन क्या आप यकीन करेंगे कि ये ऐसा फल है, जिसे सब्जी की तरह भी इस्तेमाल किया जाता है. फल तो है ही और साथ में अन्न की तरह से भी इसे पीसकर आटा बनाते हैं, जो कई कामों में इस्तेमाल होता है. हालांकि अधिकांश इतिहासकार मानते हैं कि यह मध्य एशिया या दक्षिण-पूर्व एशिया से व्यापार मार्गों (जैसे सिल्क रोड) के माध्यम से भारत आया ये भारत का स्वदेशी नहीं है.

मध्यकाल में व्रत में खाना शुरू हुआ
भारत में इसकी बड़े पैमाने पर खेती होती है, जो उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर भारत में होती है. अक्सर ये तालाबों और झीलों में प्राकृतिक रूप से भी उग आता है. व्रत में इसका खाना मध्यकाल में शुरू हुआ, तब ये व्रत-उपवास के भोजन के रूप में लोकप्रिय हो गया. ये हल्का और सात्विक भोजन माना जाता है.
सिंघाड़ा ग्लूटेन-फ्री होता है. इसे “फलाहारी आटा” माना जाता है. इसमें पोषक तत्व होते हैं. तुरंत एनर्जी देता है. सिंघाड़े के आटे से मीठे और नमकीन दोनों तरह के व्यंजन बनाए जा सकते हैं. व्रत में सिंघाड़े की स्वादिष्ट पकौड़ी बनाई जाती है.
पानी में तैरता रहता है इसका पौधा
सिंघाड़े का पौधा एक तैरने वाला पौधा है. इसकी पत्तियां पानी की सतह पर तैरती रहती हैं, जो देखने में थोड़ी-बहुत त्रिकोणाकार या डायमंड के आकार की होती हैं. इसके फूल पानी की सतह से थोड़ा ऊपर सफेद रंग के खिलते हैं. सिंघाड़ा पानी की सतह के नीचे, पौधे की डूबी हुई तने वाली शाखाओं पर लगता है. जब फल पक जाता है, तो उसे तोड़कर इकट्ठा किया जाता है.
कितने दिनों में पैदा होता है
सिंघाड़े की फसल तैयार होने में लगभग 5 से 7 महीने का समय लगता है. बीजों की रोपाई जून-जुलाई में की जाती है, जब तालाब, जलाशय, पानीदार खेत लबालब पानी से भर जाते हैं. पौधा तेजी से बढ़ता है, पानी की सतह पर पत्तियां फैलती हैं और फूल आते हैं. फल अक्टूबर महीने से बनना शुरू होते हैं. कटाई नवंबर से मार्च तक चलती है.
सींग के कारण पड़ा नाम
सिंघाड़े का नाम उसके सींग जैसे आकार से पड़ा. इसके फल में दो या दो से अधिक नुकीले “सींग” होते हैं, इसलिए इसे सिंघ-आड़ा यानी “सींगों वाला” कहा जाता है. ज्यादातर लोग सोचते हैं कि सिंघाड़े का पौधा एक बड़ा पौधा होगा, लेकिन हैरानी की बात यह है कि यह घास के परिवार से संबंधित है.
क्यों इसे कीचड़ का पौधा कहते हैं
सिंघाड़े का पौधा पानी की सतह पर तैरता रहता है, लेकिन उसकी जड़ें तालाब की तलहटी की कीचड़ में गहराई तक उतर जाती हैं. ये जड़ें पौधे को स्थिर रखती हैं और पोषक तत्व जमा करती हैं.
सिंघाड़ा और मछली दोनों साथ पलते हैं
सिंघाड़े की खेती का एक दिलचस्प पहलू यह है कि कुछ जगहों पर किसान एक ही तालाब में मछली पालन और सिंघाड़े की खेती साथ-साथ करते हैं. इसे “इंटीग्रेटेड एक्वाकल्चर” कहते हैं. मछलियों के मल-मूत्र से तालाब को प्राकृतिक खाद मिलती है, वैसे कहा जाता है कि सिंघाड़े का पौधा पानी को शुद्ध रखने का काम भी करता है.
चेतावनी भी
अगर सिंघाड़ा किसी ऐसे तालाब में उगाया जा रहा हो जिसका पानी सीवेज या औद्योगिक कचरे से प्रदूषित है, तो वह सिंघाड़ा खाने के लिए सुरक्षित नहीं होता. पौधा भारी धातुओं और हानिकारक बैक्टीरिया को अपने अंदर सोख सकता है.