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हिन्दू विवाह में दूल्हा-दुल्हन अग्नि को साक्षी मानकर फेरे लेते हैं और जीवनभर साथ निभाने का संकल्प करते हैं.मगर भारत में अधिकतर शादियाँ रात में होती दिखाई देती हैं. ऐसे में सवाल उठता है. क्या यह परंपरा सच में शास्त्रों के विरुद्ध है, या इसके पीछे कोई गहरा कारण छिपा है. आइए जानते है इसका महत्व.
हिन्दू धर्म में 16 संस्कार कहे गए है, जिनका अलग-अलग नाम व महत्व शास्त्रों में बताया गया है. उन्हीं में से एक विवाह संस्कार भी शामिल है, जो केवल दो व्यक्तियों का नहीं, बल्कि दो परिवारों का मिलन है. इस अनुष्ठान का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है ‘हवन’ या ‘यज्ञ’, जिसके चारों ओर दूल्हा-दुल्हन सात फेरे लेते हैं. सनातन धर्म में हवन को एक शुभ और सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत माना जाता है, जिसे सूर्योदय के बाद और गोधूलि वेला से पहले यानी दिन के समय करना सबसे सही माना गया है.
अक्सर देखा जाता है कोई भी पवित्र व शुभ काम होगा, जैसे ग्रह प्रवेश, बड़े-बड़े यज्ञ या फिर कोई धार्मिक अनुष्ठान उन सभी में हवन, यज्ञ तो होता है कि उसके लिए रात का समय क्यों नही चुना जाता है. यह हमेशा संध्या सुबह, दोपहर, शाम में ही क्यों होता है? यह अक्सर कहीं लोगों के मन मे सवाल आता है.
लेकिन इतना नहीं एक समय ऐसा आता है, जब यह हवन रात्रि में देखने को मिलता है. यानि कि विवाह कार्य में घोर अँधेरे के बीच यह हवन विधि-विधान से दो परिवार व दो लोगों को एक करता है. लेकिन, यहां एक बड़ा विरोधाभास खड़ा होता है. अगर धर्म-शास्त्र दिन में शुभ कार्य और हवन को प्राथमिकता देते हैं, तो फिर अधिकांश शादियां ‘रात के अंधेरे’ या देर रात में क्यों होती हैं? आइए उज्जैन के आचार्य आनंद भारद्वाज से जानते है इसका सही जवाब.
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धार्मिक मान्यताओं में रात्रि का समय गहन अंधकार और रहस्यमय ऊर्जा से भरा माना गया है माना जाता है कि इस अवधि में नकारात्मक तथा आसुरी शक्तियों का प्रभाव बढ़ जाता है. इसके विपरीत, सामान्य गृहस्थ जीवन से जुड़े शुभ कार्य-जैसे यज्ञ, हवन और देवपूजा, सूर्य की उज्ज्वल ऊर्जा वाले दिन के समय करने का विधान बताया गया है. दिन का प्रकाश पवित्रता, सकारात्मकता और ईश्वरिक ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है, इसलिए इन्हें दिन में करना अधिक शुभ माना गया है.
शास्त्रों में जहाँ दिन के समय विवाह को अधिक मंगलकारी माना गया है, वहीं रात में होने वाले विवाह की परंपरा भी समय के साथ विकसित हुई. इसके पीछे दो महत्वपूर्ण कारण बताए जाते हैं. शास्त्रों के अनुसार, विवाह के पवित्र फेरे लेते समय दंपत्ति को सप्तऋषि मंडल और ध्रुव तारे के दर्शन कराए जाते हैं.
इसका उद्देश्य यह होता है कि वे अपने संबंध को ध्रुव तारे की तरह अडिग, स्थिर और चिरस्थायी बनाने का संकल्प लें. चूँकि ध्रुव तारा केवल रात्रि में स्पष्ट दिखाई देता है. इसलिए उसे विवाह का दिव्य साक्षी बनाने के लिए रात का शुभ मुहूर्त अपनाया जाता है.
रात्रि में विवाह संपन्न होने की परंपरा केवल धार्मिक कारणों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसके पीछे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी जुड़ी हुई है. उपलब्ध ऐतिहासिक विवरण बताते हैं कि मुगल शासन के समय दिन के उजाले में होने वाले बड़े सामाजिक आयोजन, विशेषकर हिंदू विवाह, अक्सर असुरक्षित माने जाते थे. आक्रमणकारियों और बाधाओं के भय से लोगों ने अपने परिवारों की सुरक्षा के लिए नए उपाय अपनाने शुरू किए.
इसी दौर में अनेक परिवारों ने विवाह जैसे पवित्र संस्कारों को रात के सन्नाटे और अंधकार की आड़ में संपन्न करना बेहतर समझा, ताकि समारोह बिना किसी व्यवधान के पूरा हो सके. धीरे-धीरे यह तरीका केवल सुरक्षा का साधन न रहकर एक प्रचलित परंपरा में परिवर्तित हो गया. समय के साथ समाज ने इसे अपनाया और रात्रिकालीन विवाह एक सामान्य और स्वीकृत प्रथा बन गई. आज भी कई क्षेत्रों में यह ऐतिहासिक प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है.
