Home Dharma वृंदावन के संत प्रेमानंद महाराज ने बताया असली संत की पहचान

वृंदावन के संत प्रेमानंद महाराज ने बताया असली संत की पहचान

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प्रेमानंद महाराज ने कहा, ‘आजकल हर कोई पैसे के पीछे भाग रहा है. अर्थ का मतलब है भोग सामग्री और भोग सामग्री का भोगता कभी ज्ञानी नहीं हो सकता. ऐसे ही लोगों की वजह से आम लोगों के द‍िमाग में ये बात बैठ गई है कि ये स…और पढ़ें

संत कौन? प्रेमानंद महाराज ने खोला असली संत की पहचान का राज

प्रेमानंद महाराज

Premanand Maharaj: आजकल सोशल मीड‍िया पर कई लोग आपको ऐसे म‍िल जाएंगे जो खुद को धार्म‍िक क्र‍ियाओं में न‍िपुण या ‘बाबा जी’ कहलवाते हैं. लेकिन क्‍या महज भगवा कपड़े धारण कर ही कोई संत बन जाता है? ‘आखिर संत क्‍या होता है?’ इस बात का जवाब द‍िया वृंदावन के प्रस‍िद्ध संत प्रेमानंद महाराज ने. प्रेमानंद जी से पूछा गया कि संत किसको माने? क्‍या ये बातें बाहरी वेशभूषा यानी कपड़ों से तय की जा सकती है या आंतरिक स्थिति से देखा जाए. इसपर प्रेमानंद महाराज ने कहा कि ‘जो 3 भावनाओं पर व‍िजयी होता है, वही संत कहा जाता सकता है.’

प्रेमानंद महाराज कहते हैं, ‘पुत्रेष्‍णा, व‍ितेष्‍णा और लोकेष्‍णा. इसे आम भाषा में समझें तो कंचन, काम‍िनी और कीर्ति. जो काम पर, जो धन की आशा तो त्‍याग क‍र चुका है और ज‍िसे कीर्त‍ि की इच्‍छा नहीं है, उसे ही महात्मा कहते हैं.’ इसपर उनसे आगे पूछा गया कि ये तो आंतर‍िक स्‍थ‍िति हो गई. लेकिन बाहर से कैसे पहचानें कौन है असली संत. इसपर प्रेमानंद महाराज बताते हैं कि आंतरिक स्थिति का ही बाहर प्रकाश नजर आता है. व्यवहार से ही पता चल जाता है कि कौन संत है. ड्रामेबाजी का व्यवहार अलग होता है. वह आगे कहते हैं, ‘अगर हम आपसे पैसा लेना शुरू कर दें तो आप यहां आना बंद कर देंगे. हम आपको हलुवा पूड़ी का प्रसाद नहीं दे सकते क्‍योंकि हमारी क्षमता ही नहीं है. यही वजह है कि हमारे आश्रम में प्रसाद नहीं बांटा जाता. हम तो बस अपना उदर-पोषण करते हैं.’

क्‍या ब‍िना गुरू के बन सकते हैं ‘संत’?

इस सवाल के जवाब में प्रेमानंद महाराज बताते हैं, ‘ब‍िना गुरु के आप सन्‍यासी नहीं बन सकते. कई बार लोगों में थोड़ा प्रमाद आया, कायरता आई और बस भेष बदल ल‍िया और सोचने लगे कि माल छानने को मिलेगा. उन्हीं से नौटंकी-नाटक बढ़ रहा है. क्‍योंकि जब वैराग्य आता है तो ये सब नहीं होता, बस भगवत प्राप्ति की चाह आती है. जब काम-क्रोध पर व‍िजय ही नहीं पाई तो करोगे क्‍या, बस पैसे का ही प्रचार करोगे.’ वह आगे कहते हैं कि आजकल हर कोई पैसे के पीछे भाग रहा है. सत्‍संग, भागवत हर जगह अर्थ (पैसे) का ही काम हो रहा है और अर्थ का मतलब है भोग सामग्री और भोग सामग्री का भोगता कभी ज्ञानी नहीं हो सकता. वो कभी भगवान का प्रेमी नहीं हो सकता. ऐसे ही लोगों की वजह से आम लोगों के द‍िमाग में ये बात बैठ गई है कि ये सब एक धंधा है. क्‍योंकि इसको धंधा बनाया जा रहा है.

वहीं संतों की वेष-भूषा पर वह कहते हैं, ‘भेस बदलने में ज्‍यादा देर लगती नहीं है, नीचे लाल पहन लो, ऊपर लाल पहन लो या नीचे पीला पहन लो ऊपर पीला पहन लो. जैसा मन हुआ वैसा तिलक लगा लो. क‍िसी को पता तो है नहीं कि आपने क‍िस संप्रदाय का तिलक लगाए है या आप क‍िस आचार्य परंपरा से जुड़े हैं. ऐसे में ये लोग बेइज्‍जती कराते हैं संतों की. असल में आचार्य परंपरा से जुड़े हुए वैराग्य दीक्षा लिए हुए लोगों के आगे ही संत शब्‍द लगता है.

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