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बहुत विचित्र तरीके से बनता है साबूदाना, जिसे व्रत में खाया जाता है, कैसे दिखता है गोल मोती जैसा 

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Sabudana: व्रत और उपवास के दौरान साबूदाना सबसे ज्यादा पसंद किया जाने वाला भोजन है. नवरात्रि में तो इसकी खिचड़ी, पकौड़ी और टिक्की खूब खायी जाती है. साबूदाना सिर्फ व्रत-उपवास के लिए ही नहीं, बल्कि अब तो एक लोकप्रिय स्ट्रीट फूड भी बन गया है. लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि यह गोल, मोती जैसा दिखने वाला साबूदाना असल में क्या है, कहां से आता है और भारत में इसकी शुरुआत कैसे हुई? यह कोई अनाज नहीं है और न ही यह खेतों में उगता है. बल्कि इसे एक खास तरह के पेड़ के गूदे से तैयार किया जाता है.

साबूदाना जिसे सागो भी कहा जाता है, मुख्य रूप से सागो पाम (Sago Palm) नामक पेड़ के तने के गूदे से निकाला गया स्टार्च होता है. हालांकि, यह जानना महत्वपूर्ण है कि भारत में विशेषकर तमिलनाडु के सेलम शहर में साबूदाना बनाने के लिए अक्सर टैपिओका रूट (Tapioca Root) जिसे कसावा भी कहते हैं, का उपयोग किया जाता है. इसलिए, साबूदाना का स्रोत सागो पाम या टैपिओका दोनों हो सकता है. लेकिन पारंपरिक रूप से यह सागो पाम से ही बनता है. भारत में सेलम को साबूदाने का सबसे बड़ा उत्पादक माना जाता है. यहीं से यह देश भर में सप्लाई होता है.

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कैसे बनता है साबूदाना
साबूदाना सागो पाम नामक पेड़ के तने से निकाला गया स्टार्च होता है, जो ताड़ के पेड़ जैसा ही दिखता है. यह पेड़ मूल रूप से दक्षिण और लैटिन अमेरिका पाया जाता है. जब इस पेड़ का तना अच्छी तरह से मोटा हो जाता है, तो उसे काटकर उसके बीच के हिस्से को निकाला जाता है. पेड़ के गूदे से स्टार्च निकालकर उसे कई बार धोया जाता है, जिससे उसमें मौजूद अशुद्धियां दूर हो जाती हैं. इस गूदे को पीसकर बारीक पाउडर बनाया जाता है. इसके बाद इस गीले स्टार्च को मशीनों से दबाकर छोटे-छोटे दानों का आकार दिया जाता है. फिर इन्हें गर्म करके सुखाया जाता है, जिससे ये सख्त और गोल मोती जैसे बन जाते हैं. जिसे हम साबूदाना कहते हैं. इस पूरी प्रक्रिया के बाद ही यह खाने लायक बन पाता है.

साबूदाना का स्रोत सागो पाम या टैपिओका दोनों हो सकता है.
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साबूदाना बनाने की प्रक्रिया
साबूदाना बनाने के लिए सबसे पहले सागो पाम के गूदे को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा जाता है. इन टुकड़ों को बड़े-बड़े बर्तनों में आठ से दस दिनों तक भिगोकर रखा जाता है. इस दौरान पानी को नियमित रूप से बदला जाता है. इस प्रक्रिया से एक गाढ़ा गूदा तैयार होता है, जिसे बाद में मशीनों में डालकर साबूदाने के दानों का आकार दिया जाता है. इसके बाद इन दानों को अच्छी तरह सुखाया जाता है. सूखने के बाद इन्हें चमकदार बनाने के लिए ग्लूकोज और स्टार्च के पाउडर से पॉलिश किया जाता है. इस तरह हमें सफेद, मोती जैसा दिखने वाला साबूदाना मिलता है. भारत में, साबूदाने का उत्पादन सबसे पहले तमिलनाडु के सेलम शहर में 1943-44 के आसपास एक कुटीर उद्योग के रूप में शुरू हुआ था.

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एक पौष्टिक और स्वादिष्ट विकल्प
साबूदाना एक ऐसा आहार है जो आपके पाचन तंत्र को बेहतर बनाने के साथ-साथ शरीर को भरपूर पोषण भी देता है. यह ऊर्जा का एक बेहतरीन स्रोत है क्योंकि इसमें कार्बोहाइड्रेट्स की मात्रा बहुत ज्यादा होती है. लगभग 100 ग्राम साबूदाने में करीब 350 कैलोरी होती है, जो इसे तुरंत ऊर्जा देने वाला भोजन बनाती है. साबूदाने में मौजूद स्टार्च पाचन के दौरान आसानी से ग्लूकोज में बदल जाता है. यह ग्लूकोज तुरंत खून में मिल जाता है और शरीर की सभी कोशिकाओं, खासकर दिमाग को, ऊर्जा प्रदान करता है। इसी वजह से आप दिनभर चुस्त और सक्रिय महसूस करते हैं. साबूदाने में थोड़ी मात्रा में विटामिन सी और कैल्शियम भी पाया जाता है, जो इसे और भी गुणकारी बनाता है. यही कारण है कि इसे व्रत और उपवास के दौरान एक पौष्टिक और स्वादिष्ट भोजन के रूप में पसंद किया जाता है.

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कैसे पहुंचा ये भारत
क्या आप जानते हैं कि टैपिओकाका पेड़ मूल रूप से कहां का है? बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार इसकी उत्पत्ति दक्षिण और लैटिन अमेरिका में हुई थी. ग्वाटेमाला, मेक्सिको, पेरू, पराग्वे और होंडुरास जैसे देशों में इसका उपयोग 5,000 साल से भी पहले से हो रहा है. 15वीं शताब्दी में पुर्तगाली व्यापारी इसे अफ़्रीकी महाद्वीप तक लाए. फिर, 17वीं शताब्दी में यह एशिया तक पहुंचा. मैकमिलन की रिपोर्ट बताती है कि पुर्तगाली व्यापारी ही इसे अपने साथ भारत लाए, जहां यह सबसे पहले दक्षिण भारत के केरल राज्य में पहुंचा और वहां इसकी खेती शुरू हुई।.आज भी केरल और तमिलनाडु जैसे कई दक्षिणी राज्यों में इसे कप्पा कहा जाता है. दुनिया में थाईलैंड टैपिओका का सबसे बड़ा उत्पादक है.

साबूदाने में मौजूद स्टार्च पाचन के दौरान आसानी से ग्लूकोज में बदल जाता है.
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टैपिओका की वैरायटी
पूरी दुनिया में टैपिओका की दो मुख्य किस्में पायी जाती हैं. मीठा टैपिओका (Sweet Tapioca): यह इंसानों के खाने योग्य होता है और इसका इस्तेमाल कई तरह के व्यंजनों में किया जाता है. कड़वा टैपिओका (Bitter Tapioca): इसमें हाइड्रोसाइनिक एसिड (Hydro Cyanic Acid) की मात्रा अधिक होती है, जिस वजह से इसे सीधे नहीं खाया जा सकता. इसे खाने लायक बनाने के लिए कई शोधन प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता है. इसका उपयोग चिप्स, पेलेट्स और अल्कोहल बनाने में किया जाता है.

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अकाल में बचायी लोगों की जान
लगभग 1800 के दशक में जब त्रावणकोर (Travancore) में अकाल पड़ा तो लोगों के सामने खाने का गंभीर संकट खड़ा हो गया. अनाज के भंडार पूरी तरह खाली हो चुके थे जिससे राजा अयलयम थिरुनल रामा वर्मा बहुत चिंतित थे. राजा ने अपने सलाहकारों से इस समस्या का हल ढूंढने को कहा. तब वहां के वनस्पति विशेषज्ञों ने पाया कि टैपिओका को भोजन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. इसके बाद राजा के निर्देश पर लोगों को टैपिओका अलग-अलग तरीकों से दिया जाने लगा. धीरे-धीरे यह वहां की जनता के बीच लोकप्रिय हो गया और इस तरह इसने अकाल के समय लोगों की जान बचाने में अहम भूमिका निभाई.


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https://hindi.news18.com/news/knowledge/sabudana-which-is-eaten-during-vart-is-made-in-a-very-strange-way-how-it-looks-like-a-round-pearl-ws-kl-9665012.html

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